“यह क्रांति का युग नहीं है। यह आशावाद का युग नहीं है। लेकिन निराशावाद का युग भी नहीं है। यह, हमारी समझ से, संघर्ष की ऊर्जा को बचाए रखने का युग है,” सुधीर रंजन सिंह लिखते हैं।
कविता में यह समकालीनता का सबसे लम्बा दौर है। ’70 के बाद से अभी तक- यानी आधी शताब्दी तक- सब समकालीनता के दायरे में दिखाई पड़ता है। दिखाई पड़ता है का मतलब है कि विभाजक रेखा तय नहीं हुई है। बद्रीनारायण ने आज से आठ-दस साल पहले ‘लाँग नाइन्टीज़’ की अवधारणा रखी थी, जिसमें मोटे तौर पर समकाल सोवियत संघ के पतन के बाद से शुरू होता है और जो संभवतः अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। बद्री इतिहासकार हैं। ज़रूरी नहीं कि ऐतिहासिक परिवर्तन की गति से कविता में परिवर्तन आए। कविता का मामला अलग चलता है और कभी-कभी उलटा भी। संभव है कि किसी को आज की कविता में नई कविता की प्रवृत्तियाँ प्रबल दिखाई पड़े। मैं उस तर्क में नहीं पड़ना चाह रहा। उसकी ज़रूरत ही नहीं है, क्योंकि कविता अपनी प्रवृत्तियों से बहुत पीछे तक जा सकती है। शायद यह उसके कविता होने की शर्त में शामिल है। इसके ठीक उलटा भी हो सकता है। एक ही कवि की दो कविताएँ आपस में समकालीन नहीं हों।
मैं कवि हूँ। मैं चाहता हूँ- चाहता हूँ, कर पाता हूँ या नहीं, यह अलग सवाल है- जो कविता लिखूँ, उसके समय को वहीं समाप्त कर दूँ, और दूसरे समय में प्रवेश कर जाऊँ। दूसरे समय की कविता लिखूँ, जिसमें पिछले के हावी होने से अपने को बचा ले जाऊँ। दूसरी ओर चाहता हूँ- चाहता हूँ और यह करने के लिए हमारे समय के कवि बदनाम हैं- अपने समय के दूसरे कवियों की कविताओं की बहुत-सी बातें मेरे कविताओं में भी दिखाई पड़े। अगर हम यह नहीं कर पाते तो एकांत के तो कवि हो सकते हैं, लेकिन समाज के कवि होने में थोड़ी मुश्किल हो सकती है। मैं एकांत और समाज, दोनों का कवि होना चाहता हूँ। अपनी समकालीनता को भी मैं इसी रूप में पहचानने की कोशिश करता हूँ।
मोटे तौर पर, यानी विधेयवादी दृष्टि से, तीस-चालीस साल की हमारी कविताएँ समकालीन हो सकती हैं। सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक घटनाओं के चिह्न एक-दूसरे में खोजे जा सकते हैं। ऐसा होना ही चाहिए। जिस समय में हम साँस ले रहे हैं, उसका अस्तित्व शब्द में भी होना चाहिए। शब्द यानी भाषा। भाषा में अगर समकालीनता के संकेत दिखाई देते हैं तो यह महत्त्वपूर्ण बात है। भाषा यानी समग्र रूप से कला में- बिम्ब, प्रतीक सबमें। सबको मिलाकर जो काव्यभाषा बनती है, उसमें। यह काव्यभाषा ही है, जो एक साथ समकालीन बनाती है और सर्वकालिक भी।
काव्यभाषा में बहुत शक्ति है। इसमें अस्तित्व का स्फोट होता है, काल घटित होता है। दूसरे शब्दों में इतिहास फलीभूत होता है। इतिहास के द्वन्द्वात्मक संघर्ष की संरचना की सफल खोज काव्यभाषा में संभव है। काव्यभाषा का बदलाव बड़े बदलाव का संकेत है और पहचान भी। काव्यभाषा में बदलाव स्वयं में एक बड़ी घटना है। काल बनता कैसे है? किसी घटना से न! निराला की प्रसिद्ध कविता है ‘तोड़ती पत्थर’। मैंने अपनी एक कविता (‘सड़क सुन्दर’ कविता) में इस कविता की इस प्रकार नोटिस ली है-
इलाहाबाद के पथ पर
नहीं छायादार पेड़ देखा निराला ने जिस दिन
वह कविता के एक आन्दोलन के ख़त्म होने का दिन था
‘तोड़ती पत्थर’ कविता के इतिहास में एक घटना थी। सुमित्रानंदन पंत का पहला संग्रह ‘पल्लव’ एक घटना था। इनसे नया काल शुरू हुआ। नई घटना से नया काल शुरू होता है। हर नया काल पिछले और आने वाले काल के बीच संक्राति का युग होता है। बीच की कड़ी। इसे उतार-चढ़ाव के रूप में नहीं देखा जा सकता है। उतार-चढ़ाव के साथ-साथ चलने वाली क्रियाएँ हैं। अगर केवल चढ़ाव ही चढ़ाव हो तो हम एक निष्क्रियता के बिन्दु पर पहुँच जाएँगे; और उतार ही उतार हुआ क्रियाहीनता को प्राप्त कर लेंगे। इसलिए संघर्ष हमेशा बना रहना चाहिए। असली बात है संघर्ष- संघर्ष का बने रहना।
कवि का अकेलापन भी एक संघर्ष है। उस अकेलेपन की कविता विशेष घटना का संकेत करती है। मायकोव्स्की का लेख है ‘हाऊ आर वर्सेज टू बी मेड’। उसमें एक काव्यपंक्ति आती है- ‘मैं अकेला चलता हूँ/ कुहासे से भरी सड़क पर’। कुहासे से भरी सड़क पर कवि का अकेला चलना एक घटना है। मायकोव्स्की कहते हैं कवि को अकेला नहीं चलना चाहिए। उसके साथ लड़कियाँ भी होनी चाहिए। प्रगतिवाद का कवि कहता है- कवि के साथ जुलूस होना चाहिए। मैं कहूँगा कि कम से कम दोस्त-यार तो होने ही चाहिए। हम आन्दोलनों के अभाव के युग में जी रहे हैं। दोस्ती-यारी की दुनिया घट रही है, उस युग में जी रहे हैं। अगर हमारी कविता से यह ध्वनि निकलती है तो निष्चित ही हम समकालीन हैं। आज हम खाली कनस्तर बजाकर समकालीन नहीं हो सकते। इसी से जुड़ी बात है कि प्रयोगवाद और नई कविता के युग में दबाव कविता पर था, नया करने का; आज की कविता का दायित्व है कि वह समय और समाज पर दबाव बनाए। आज की कविता कितने भी हाशिये पर चली गई हो, इस दबाव से हम मुक्त नहीं हो सकते।
आज हम अकेला हुए हैं, निहत्था नहीं हुए हैं। अकेला होना अभिषाप है, जिसे कवि वरदान में बदल सकता है। ‘अकेला’ होने में एक ताक़त है। एकांतिकता सृजन का बल है। मैं एक रूपक गढ़ने की इज़ाजत चाहूँगा। समय एक फल है। उसके बीच में सृजन-कर्म का बीज है- अपने प्रयासों में लगा हुआ। बीज उसी फल को नष्ट करने की इच्छा करता है जो उसकी रक्षा कर रहा है। फल जब नष्ट हो जाता है और बीज बाहर आता है तभी वह नई सृष्टि करने में सक्षम होता, नया समय गढ़ने में सफल होता है। बीज का जो प्रयास है, उसी प्रकार का प्रयास हमें नया काल गढ़ने में समर्थ बनाता है। यह सिलसिला है जिसके भीतर हमारा संघर्ष, हमारी सृजना-शक्ति हमें समकालीन बनाती है।
हमारा संघर्ष दोहरा है। पीछे मैंने कहा कि मैं एकांत और समाज, दोनों का कवि होना चाहता हूँ। उसी को दूसरी भाषा में कहूँ- आत्मसंघर्ष और जीवन-संघर्ष, दोनों का कवि होना चाहता हूँ। एकांतिक संघर्ष और सामाजिक संघर्ष, दोनों का। हिन्दी में निराला दोनों का सबसे बड़े कवि हैं। ‘राम की शक्तिपूजा’ और ‘सरोज स्मृति’, दोनों प्रकार के संघर्षों का मिलन बिन्दु हैं। मुक्तिबोध में आत्मसंघर्ष प्रबल है, लेकिन उनका बाहरी संघर्ष कोई कम नहीं है। जो कवि कहता है, ‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे/ तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब’, उसके बारे में क्या कहेंगे! अज्ञेय और शमशेर में भी आत्मचेतना और समाज-चेतना के उच्च मिलन-बिन्दु दिखाई पड़ते हैं। और क्यों नहीं, दोनों कवि काल से टकराने का माद्दा रखते हैं। शमशेर का संग्रह है ‘काल तुझसे होड़ है मेरी’:
जीवन वैभव से समन्वित
व्यक्ति मैं।
मैं, जो वह हरेक हूँ
जो, मुझसे, ओ काल, परे है।
‘जीवन वैभव से समन्वित’ से लगता है कि इसमें सब सुख ही सुख है, लेकिन ऐसा नहीं है। ‘वैभव’ के भीतर दुख और दैन्यता भी है। किसी एक की नहीं, हरेक की। बहरहाल, कविता बड़ी व्याख्या की माँग करती है। अज्ञेय में आत्ममुग्धता ज़्यादा है, लेकिन समय से सामना की शक्ति है, और यही कवि की साधना है। कविता है ‘काल की गदा’:
काल की गदा
एक दिन
मुझ पर गिरेगीगदा
मुझे नहीं नायेगी:
पर उसके गिरने की नीरव छोटी-सी ध्वनि
क्या काल को सुहाएगी?
निराला, मुक्तिबोध, अज्ञेय, शमशेर काव्याभिव्यक्ति के सर्वोच्च बिन्दु की रचना करते हैं। समकालीनता और शाश्वतता का प्रश्न वहाँ समाप्त हो जाता है। काव्याभिव्यक्ति के उस बिन्दु को प्राप्त करने की ज़रूरत है, जो समकालीन बनाती है और सर्वकालिक भी।
इतने सारे 20वीं षताब्दी के कवियों का नाम लिया तो नागार्जुन को क्यों छोड़ दें? नागार्जुन की समकालीनता लोकतांत्रिक दबाव बनाने में है। जब तक लोकतंत्र रहेगा नागार्जुन की कविता की समकालीनता बनी रहेगी। मैंने लिखा है नागार्जुन लड़ते लोकतंत्र के लिए थे, लेकिन कबीर के समान वाणी के डिक्टेटर थे। लोकतांत्रिक आन्दोलनों के दबाव बनाने की राजनीति के जितने करतब हो सकते हैं, नागार्जुन ने उससे ज़्यादा करतब दिखाए। भाषा के महाखिलाड़ी थे।
हम राजनीति से घिरे हुए हैं, सामाजिक जीवन जी रहे हैं, आर्थिक सत्ता के बोझ के नीचे दबे हुए हैं। इन सबके बीच हमारी जो क्रिया-प्रतिक्रिया है और जिसके कारण हम समकालीन है, काव्याभिव्यक्ति के स्तर पर हमारी समकालीनता ठीक-ठीक वैसी नहीं है। भाषा बहुत गहराई में जाकर खेल खेलती है। दूसरी ओर, भाषा की अपनी अपूर्णता भी है, जिसकी क्षतिपूर्ति भी हम बार-बार भाषा से ही करने की कोशिश करते हैं। इसलिए कविता में समकालीनता का प्रश्न वही नहीं है, जो जीवन के अन्य क्षेत्रों में है। कवि की भाषा और उसके अनुभव के तनाव के बीच समकालीनता को देखना सही तरीका हो सकता है।
हमने पीछे कहा है कि काल बनता है घटना से। घटना समय को आकार देती है। घटित समय स्मृति को आकार देता है। स्मृतिबद्ध समय कविता का वज़नदार विषय है। स्मृति का अर्थ यह नहीं है कि आँखें मूँद कर हम कुछ न कुछ याद करते रहें। कविता में स्मृति को संघर्ष से अर्जित किया जाता है। उसे शब्दबद्ध करने की ज़रूरत होती है। स्मृति के इस रूपान्तरण का सफलतापूर्वक निर्वाह अच्छी कविता की शर्तों में शामिल है। इसी बात से कविता के भीतर कवि-व्यक्तित्व उभर कर आता है। शब्दबद्ध स्मृति में दिखाई पड़ता है कि यहाँ कवि रहता है।
प्रश्न है हमारे समय की स्मृति- हमारे समकाल की स्मृति, हमारे समय के कवियों की स्मृति कितनी ताक़तवर है? यह एक ऐसा समय है, जिसमें हमारी स्मृति पर चोट किया जा रहा है, उसे विकृत करने की कोशिश की जा रही है। शताब्दी के अंत में जो स्वप्न भंग हुआ, उसके बाद स्मृतियों पर हमले ने जोर पकड़ा। कुमार अम्बुज की एक कविता है ‘याददाश्त’। यहाँ याद करने योग्य है:
आ रहे हैं जो आक्रमणकारी वे मुझ पर नहीं
हमला करना चाहते हैं मेरी याददाश्त परजानते हैं वे जब तक मेरे पास है स्मृति
मुझे याद रहेगा वह सब जो सुन्दर है
याद रहेगा यातनाओं का एक-एक क्षण
बार-बार मेरे सामने होगा मेरा इतिहास
जब तक धोखा न देगी याददाश्त
मुझे याद रहेगी मेरी ताक़त मेरी पराजय
याद रहेंगे मुझे मेरे लड़ने के औज़ार(क्रूरता)
यह कविता 1995 से पहले की है। कवि को अपनी स्मृति बचाने की चिन्ता है। चिन्ता वाजिब है। आक्रमण इतना गहरा है कि आगे के वर्षों में मुझे चिन्ता होने लगी-
कल, उसके अगले दिन
या कुछ और समय के बाद
दिन लगता है ऐसा आए
मेरी देहरी से आगे
नहीं पहचाने मुझे कोई।(शायद)
कवि को चिन्ता करनी चाहिए। उसे हारना नहीं चाहिए। फैसिनेशन किसी भी परिस्थिति में बना रहना चाहिए। ‘समकाल’ से काम न चले तो अपने बचपन में चले जाइए। हमारा बचपन हमें मोहित करता है, क्योंकि बचपन काल है मोहित करने का। मिथक मानवता का बचपन हैं, उसमें जाइए। वे हमारी कविता की सामग्री के अक्षय स्रोत हैं। उनमें हमारे दुख और आह्लाद हैं। उन्हें नया बनाकर- समकालीन बनाकर- हम निरन्तर लिखते रख सकते हैं। इससे भाषा भी आष्चर्यजनक रूप से सर्जनात्मक होगी। हम अतीत और भविष्य के मिलन-बिन्दु पर खड़े होंगे। और हम पर किसी चीज़ का दबाव है तो वह है अंतःप्रेरणा का। हम मानकर चलते हैं कि ‘हम कुछ नहीं जानते’ (जैसा कि शिम्बोस्र्का ने अपने भाषण में कहा है), लेकिन हमारी कविता की प्रकृति है, आगे हो या पीछे, अनंत की यात्रा की। असल में हमारे मस्तिष्क की ही यह प्रकृति है।
कविता लिखते हुए, व्यावहारिक बात यह है कि मेरा ध्यान काल पर नहीं जाता; लेकिन लिखने के बाद, ख़ासकर उसके प्रकाशित रूप में, उसे पढ़ते हुए अपने समय के चिह्न उसमें ढूँढ़ने की कोशिश करता हूँ। अगर मेरी कविता गढ़ाऊ-जड़ाऊ नहीं है, स्टिरियोटाइप नहीं है, नाप-तौल कर नहीं लिखी गई है तो उसमें सर्जना के विभिन्न स्तरों पर समकाल प्रकट होगा।
कविता समकालीन होती है या नहीं, इस प्रश्न को ज्यों का त्यों छोड़कर मैं कहना चाहता हूँ, कविता का अर्थ समकालीन होता है। अर्थ सामाजिक वस्तु है। निजी सम्पत्ति नहीं है। कोई भी समाज अपने हिसाब से अर्थ करता है। जो समाज जैसा होता है, जैसी उसकी प्रकृति है, अर्थ की प्रकृति भी उसी के अनुरूप होगी। किसी कविता की अपने समय में जैसी महत्ता रही होगी, हमारे समय में भी वह वैसी महत्ता प्राप्त कर सकती है (और प्राप्त नहीं भी कर सकती है), लेकिन उसका वही अर्थ नहीं होगा, अपने समय में जो उसका अर्थ रहा होगा। इसी बात में कविता के अध्ययन-मनन की सार्थकता है।
हम अपने युग की बात करें। यह क्रांति का युग नहीं है। यह आशावाद का युग नहीं है। लेकिन निराशावाद का युग भी नहीं है। यह, हमारी समझ से, संघर्ष की ऊर्जा को बचाए रखने का युग है। सौ बुराइयाँ होेंगी इस युग में, लेकिन कुछ तो सुन्दर है। जैसे हम लिखते हैं, यही बात सुन्दर है। मैं लिख रहा हूँ। मेरे पीछे के लोग लिख रहे हैं। मेरे आगे के लोग लिख रहे हैं। उनके आगे के लोगों ने लिखना शुरू कर दिया है। हमारी तीस-चालीस साल की समकालीनता तो है ही। चालीस साल तक की भी समकालीनता हो तो उसमें कोई हर्ज नहीं। इतने के हम अधिकारी हो ही सकते हैं। हमें इस विश्वास से लिखना चाहिए कि इससे पहले यह नहीं लिखी गई थी और इसके बाद नहीं लिखी जाएगी। बाकी प्रश्न बाद का है।
सुधीर रंजन सिंह हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि व आलोचक हैं। प्रस्तुत लेख बेंगलुरू पोइट्री फेस्टिवल 2019 में कविता-कार्याशाला के अन्तर्गत दिए गए व्याख्यान का संषोधित रूप है।