18 अप्रैल 2017 को प्रकाशित ले मोंड के इस स्तंभ में, फ्रांसीसी दर्शनशास्त्री आलें बादिउ यह तर्क रखते हैं कि मतदान सिर्फ हमारे राजनीति की रूढ़िवादी धारणाओं को मज़बूत करता है। वह इसके बजाय “कम्युनिज्म (साम्यवाद) की धारणाओं के पुनराविष्कार/पुनरुत्थान की बात करते हैं। फ्रेंच भाषा के इस स्तम्भ का अंग्रेज़ी में डेविड बॉर्डर ने अनुवाद किया है, जिसे यहाँ पढ़ा जा सकता है। लेख का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद आशु ने किया है।

राष्ट्रपति चुनाव (फ़्रांस, 2017) के बारे में अभी भी बहुत सारे मतदाता अनिर्णय की स्तिथि में हैं। मैं खुद भी इस बात को समझ सकता हूं। लेकिन यह अनिर्णय की स्थिति इतनी भी नहीं है कि चुनाव योग्य माने जाने वाले उम्मीदवारों की नीतियों और कार्यक्रम के बारे में कुछ पता न हो या किसी तरह की आशंका हो। यह उस पुराने वाक्यांश की तरह नहीं है – जिसे मैंने एक बार सरकोजी के विषय में इस्तेमाल कर एक सीमित सफलता का आनंद भी लिया था – कि हमें यह खुद से पूछना होगा कि “वह किनके प्रतिनिधि हैं।” अबकी तो यह काफी स्पष्ट भी है।
मरीन ले पेन – फ़्रांसिसी धुर दक्षिण पंथ की – एक आधुनिक – और स्रैण संस्करण है जो अपने अन्दर इसके सारे गुण समेटे है। वह एक अथक पेटेनवादी (फ़्रांसिसी मार्शल फिलिप पेटेन की नीतियों मिलती-जुलती नीतियाँ, फासीवादी राज्य के साथ सहभागिता की नीति) है।
फ्रांकोइ फिलन तीन-पीस सूट वाला पेटेनवादी है। उसके (निजी और बजटीय) दर्शन को सिर्फ एक वाक्य में समेटा जा सकता है “पाई-पाई बचा कर रखना”। उसे इस बात की कोई परवाह नहीं रहती कि उसके पैसे किधर से आ रहे लेकिन जब राजकोषीय खर्च और विशेष रूप से गरीबों के ऊपर अलग-अलग नीतियों में खर्चे की बात आती है तो वह हद दर्जे का कंजूस और हठी है।
बेनोट हैमोन एक कमजोर, बल्कि उस सीमित “वामपंथी-समाजवाद” का प्रतिनिधि है; जैसा कुछ हमेशा से अस्तित्व में रहा है। हालाँकि उन चरित्रों में से किसी भी एक को पहचानना या उजागर कर पाना संभव नहीं है जो हम कभी देख ही नहीं पाते।
जीन-ल्यूक मेलेनचोन – निश्चित रूप से सबसे कम असहमत होने वाला – लेकिन फिर भी कथित रूप से उस “क्रन्तिकारी” वाम की संसदीय अभिव्यक्ति है, जो पुराने जर्जर समाजवाद (सोशलिज्म) और भूतहे साम्यवाद (कम्युनिज्म) के अनियत सीमा पर खड़ा है। वह अपने कार्यक्रम की कमी और अस्पष्टता की भरपाई जीन जौरेस जैसी वाकपटुता से करता है।
इमैनुएल मैक्रॉन, अपनी भूमिका में, एक ऐसा प्राणी है, जिसे हमारे सच्चे आकाओं ने निम्न स्तर से उठा कर लाया है। ये आका नवीनतम पूंजीवाद है, जिसने एहतियात के तौर पर सारे अख़बार और मीडिया खरीद ली है। यदि वह मानता और कहता है कि गुयाना एक द्वीप है या कि पीरियस एक आदमी है, तो ऐसा इसलिए क्योंकि उसे पता है कि वह एक ऐसे शिविर से सम्बद्ध रखता है जिसके कथनी और करनी में कभी कोई एका नहीं रहा है और अपने दिए गए वक्तव्यों से इस शिविर ने कभी कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखाई है।
इसलिए जो असमंजस की स्थिति में हैं, उन्हें यह पता है – हालाँकि थोड़ी सी अनिश्चितता से – कि इस पुराने और प्रसिद्ध भूमिकाओं वाले इस ड्रामे/थिएटर में, राजनितिक प्रतिबद्धताओं की या तो बहुत थोड़ी या बिलकुल भी कोई जगह नहीं है। यह सिर्फ “हाथ की सफाई (बेईमानी)” का केवल एक बहाना भर है। इसी कारणवश यह बहुत जरूरी है कि हम इसी एक सवाल से शुरुआत करें:
राजनीति क्या है? एवं, स्पष्ट-व-घोषित राजनीति क्या है?
चार मौलिक राजनीतिक प्रवृतियाँ
कोई भी राजनीति हमेशा तीन तत्वों के आधार पर खुद को परिभाषित कर सकती है। प्रथम, सामान्य जनों का एक समूह, उनके सोच एवं कार्य, वह कैसे सोचते हैं और क्या निर्णय लेते हैं। आइये हम इन्हें “जनता” कहते हैं। फिर, विभिन्न रूप के सामूहिक संस्थान: जैसे संघ, यूनियन और पार्टियां – जिसे संक्षेप में हम, “सामूहिक कार्रवाई में सक्षम सभी समूह” कह सकते हैं। अंत में, राज्य सत्ता के अंग – सांसद, सरकार, सेना, पुलिस – साथ ही अर्थव्यवस्था और/या मीडिया की शक्ति (जिसमें कोई भी अंतर अब करीब करीब अगोचर ही है), या वह सारी शक्ति जिसे आज हम – बहुत ही अनोखे एवं मज़बूत शब्दों में – “फैसला लेने वाले” कहते हैं।
कोई भी राजनीति हमेशा इन्हीं तीन तत्वों को मिलाकर या उनका इस्तेमाल कर अपने उद्देश्यों का पीछा करती हैं। इसी प्रकार, हम देख सकते हैं कि – आधुनिक विश्व में मोटे तौर पर – चार मौलिक राजनितिक प्रवृति मौजूद हैं:
फासीवादी, रूढ़िवादी, सुधारवादी एवं साम्यवादी (कम्युनिस्ट)।
इन्हीं में से दो, रूढ़िवादी एवं सुधारवादी राजनितिक प्रवृति, उन्नत पूंजीवादी देशों में केन्द्रीय संसदीय गुट का गठन करते हैं: जिनमें से फ़्रांसिसी वामपंथ और दक्षिणपंथ, संयुक्त राज्य अमेरिका की रिपब्लिकन और डेमोक्रेट इत्यादि शामिल है। इन दोनों राजनितिक प्रवृतियों के बारे में सबसे मौलिक बात यह है कि दोनों यह दावा करते हैं कि इनके बीच का संघर्ष – खासकर, उन तीन तत्वों (जनता, संस्थानिक समूह, एवं राजसत्ता के अंग) का इस्तेमाल – संवैधानिक सीमा के भीतर रहकर ही किया जाये और दोनों ही पक्ष इसपर सहमत भी होते हैं।
इनके अलावा अन्य दो राजनितिक प्रवृति – फासीवादी एवं साम्यवादी – अपने उद्देश्यों एवं विचारों के बीच के हिंसक र्विरोधों के बावजूद – एक आम सहमति पर पहुँचते हैं – जिसके अनुसार राज्य सत्ता के सवाल पर विभिन्न दलों के बीच टकराव की स्थिति अपरिहार्य है: और वह कुछ संवैधानिक सहमतियों तक ही सीमित नहीं रह सकती। ये राजनितिक प्रवृतियाँ स्वयं अपने से विपरीत या अलग – किसी भी राजनितिक उद्देश्यों को – या अपने राज्य एवं समाज की संकल्पना को – अपने में समाहित करने का विरोध करते हैं।
फासीवादी समर्थक प्रवृतियाँ
हम “संसदवाद” का उपयोग राज्य सत्ता के एक ऐसे संगठन के नाम के रूप में कर सकते हैं जो – चुनावी मशीनरी, पार्टियों और उनके ग्राहकों के मध्यस्थता द्वारा – राज सत्ता के ऊपर रूढ़िवादियों और सुधारवादियों का एक साझा आधिपत्य सुनिश्चित करता है – और हर जगह फासीवादियों या कम्युनिस्टों की किसी भी गंभीर संभावना को समाप्त करता है। राज्य का यह स्वरुप , एक ऐसा स्वरुप है जिसे मुख्यतः हम चलताऊ भाषा में “पश्चिमी” कह देते हैं। इसे एक तीसरे शब्दावली की जरूरत है, जो सामान्य तौर पर एक शक्तिशाली संविदात्मक आधार की तरह काम कर सके, और वह दोनों मुख्य प्रवृतियों के लिए, एक साथ ही, आतंरिक एवं बाह्य दोनों हो। स्पष्ट रूप से, हमारे समाजों में, नवउदारवादी पूंजीवाद ही यह आधार है। उपक्रम एवं आत्म संवर्धन की असीमित स्वतंत्रता, निजी संपत्ति के लिए पूर्ण सम्मान – जिसकी गारंटी उच्च स्तर की निगरानी, पुलिस एवं न्यायिक प्रणाली द्वारा दी जाती है – बैंक, उच्च शिक्षा, “लोकतंत्र” की आड़ में प्रतिस्पर्धा, “सफलता” की भूख, और बार-बार दोहराया गया “समानता” का हानिकारक व आदर्शीकृत चरित्र: यही हमारे द्वारा मानी गयी “स्वतंत्रता” का मायाजाल है। यही वह स्वतंत्रताएं हैं जो दोनों तथाकथित “शासक” पार्टियों द्वारा थोड़े या ज्यादा भले रूप में अनंत काल तक देने की संभावना रचा जाता है।
मगर पूंजीवाद के कुछ चरित्र “संसदीय सर्वसम्मति” के मूल्य में कुछ अनिश्चितताएँ ला सकता है – जिससे चुनाव के महापर्व में – “बड़े” रूढ़िवादी और सुधारवादी पार्टियों से – अविश्वास की झलक मिल सकती है। यह विशेष रूप से उन पेटि-बुर्जुआ वर्ग के लिए काफी हद तक सही है, जिनकी सामाजिक स्थिति खतरे में है, या फिर उन श्रमिक-वर्ग के लिए जिनके क्षेत्र औद्योगीकरण के विघटन से तबाही के कगार पर हैं। यह प्रत्यक्ष रूप से हमें पश्चिम में देखने को मिल सकता है, जो एशियाई देशों के बढ़ते हुए शक्ति के कारण एक तरह से पतन के कगार पर है। और यह संकट आज स्पष्ट रूप से फासीवादी, राष्ट्रवादी, धार्मिक, इस्लाम से घृणा और युद्ध जैसी परिस्थिति का पक्षधर है। चूंकि भय एक बहुत बुरा सलाहकार है इसीलिए इन संकटग्रस्त विषयों को फ़ैलाने के लिए मिथकों का सहारा लिया जाता है। लेकिन इन सबसे मुख्य कारण यह कि हमारी साम्यवादी (कम्युनिस्ट) समाज की परिकल्पना अपने राजकीय संस्करणों की ऐतिहासिक विफलताओं के वजह से काफी कमजोर हो गयी है – जिससे मेरा मतलब “सोवियत संघ” और “चीनी जनवादी गणराज्य” से है।
इस विफलता का परिणाम स्वयं ही स्पष्ट है: नौजवानों, वंचितों, शोषित परित्यक्त मजदूरों और हमारे गन्दी बस्तियों में बसे सर्वहारा वर्ग का एक बड़ा हिस्सा इस बात से आश्वस्त है कि हमारी “संसदीय सर्वसम्मति” वाली राजनीति का एकमात्र विकल्प यह जहरीली जातिवादी, नस्लवादी, राष्ट्रवादी और फासीवादी राजनीति है।
साम्यवाद, मानव मुक्ति की राह
अगर हमें राजनीति में इस प्रकार के विकासक्रम का विरोध करना है, तो हमारे सामने सिर्फ एक ही रास्ता खुला है – साम्यवाद का पुनरुत्थान। हमें इस पतित शब्द को फिर से उठाना होगा, इसे साफ़ करना होगा, और फिर से इसका निर्माण करना होगा। वह शब्द जो करीब दो शताब्दियों से – एक महान स्वप्न – मानव मुक्ति – का प्रतीक है। पिछले कुछ दशकों में हम पर अभूतपूर्व हमले हुए – जो हिंसक एवं क्रूर थीं और उन्होंने हमें बुरी तरह घेर कर हमला किया – इसका परिणाम है कि हम अंतिम समय तक हार की तरफ जाते रहे हैं – इसी वजह से हम किसी को यह भरोसा नहीं दिला सके कि हम इस विकासक्रम को रोकने में सक्षम और पर्याप्त हैं – और अंततः हम खुद ही इस महान उद्देश्य के लक्ष्य से भटकते गए ।
फिर हमें क्या करना चाहिए? क्या हमें मतदान करना चाहिए? मौलिक रूप से, हमें सत्ता और उसके प्रतिष्ठानों से आ रही इस माँग के प्रति उदासीन रवैया ही रखना चाहिए। अब तक तो हम सब को यह पता हो जाना चाहिए कि मतदान करना मौजूदा यथास्थिति के साथ-साथ राजनीति की रूढ़िवादी व्यवस्था को ही मजबूत करना ही है।
मतदान, मुख्य तौर से आम जनता को गैर-राजनितिक बनाने का ही समारोह है। हमें भविष्य की साम्यवादी (कम्युनिस्ट) प्रस्तावना को ठीक स्वरुप में जनता तक पहुँचाने के काम से शुरुआत करनी होगी। इस व्यवस्था में विश्वास रखने वाले सारे आश्वस्त एवं समर्पित कार्यकर्ताओं/क्रांतिकारियों को जनता के बीच जाकर इसके सारे लोकप्रिय स्वरूपों के बारे में चर्चा करनी होगी। जैसा माओ ने कहा था, हमें “जनता को यह बताना होगा कि इस भ्रम की स्थिति में हमारी प्रस्तावना हमें ठोस रूप में क्या प्रदान करती है”। यहीं से राजनीति का पुनरुत्थान होगा।

राँची निवासी आशु स्वतंत्र लेखन करते हैं।
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