“ये किताब एक जीता-जागता दस्तावेज़ है एक तहज़ीब का, एक ज़माने का और एक अन्दाज़-ए-बयां का कि जिस के असरात आज भी हू-ब-हू कुछ चुनिंदा लोगों में मौजूद हैं,” कफ़ील जाफ़री लिखते हैं।

“एक बार लखनऊ में एक नवाब साहब…”
आपने कभी-न-कभी कम-से-कम एक क़िस्सा तो ऐसा ज़रूर सुना होगा। जब भी लखनऊ का ज़िक्र होता है, उस क़िस्से में हमेशा कोई न कोई नवाब साहब ज़रूर मौजूद होते हैं, असली वाले या गढ़े हुए। यह इतना ज़्यादा प्रचलित है कि पढ़ने-सुनने वालों को लगता है कि लखनऊ में सिर्फ़ नवाब ही होते होंगे। लखनऊ वाला होने की वजह से, ख़ुद मुझसे कितनी बार पहली दफ़ा मिलने वालों ने पूछा है कि क्या मैं भी कोई नवाब हूँ। जवाब में बड़ी माज़रत के साथ बस यही बन पड़ता है कि “पिंक सिटी में रहने वाला हर इंसान पिंक होता है क्या?”
मेरे ज़हन में अक्सर ये ख़याल आया है कि काश कोई वो क़िस्से भी सुनाता जो गली-मोहल्लों में आम लोगों के बीच पनपती हैं- चाय के होटलों के, रिक्शे वालों के, कपड़े की दुकान वालों के, उस्तादों के, वग़ैरह वग़ैरह। इन्हीं क़िस्सों में तो असली लखनऊ छुपा है।
हिमांशु बाजपेयी की किताब “क़िस्सा क़िस्सा लखनउवा” बिलकुल यही मुराद पूरी करती है, बल्कि उससे भी दो क़दम आगे बढ़कर लखनऊ की बोली, अन्दाज़, गंगा-जमनी तहज़ीब, और सुख़नसाज़ी से जुड़े क़िस्से सुनाती है। ये किताब एक जीता-जागता दस्तावेज़ है एक तहज़ीब का, एक ज़माने का और एक अन्दाज़-ए-बयां का कि जिस के असरात आज भी हू-ब-हू कुछ चुनिंदा लोगों में मौजूद हैं। ऐसे लोगों में हिमांशु ख़ुद एक हैं जिन्होंने इतने खुलूस के साथ इन क़िस्सों को इकठ्ठा किया है। ये एक सच्चे दास्तानगो हैं, सिर्फ़ बयान से ही नहीं, लिखाई से भी। अपने लखनवी अन्दाज़-ओ-अल्फ़ाज़ से एक ख़ूबसूरत दास्तान बुनना कोई इनसे सीखे।
मेरे जैसे लखनऊ वालों के लिए इस किताब का हर पन्ना शहर की किसी न किसी जानी पहचानी गली, मोहल्ले, नुक्कड़ या चौराहे में चहलक़दमी करने जैसा है। ऐसी चहलक़दमी जो उन सब जगहों को और क़रीब से, और गहराई से जान लेने का मौक़ा देती है। मिसाल के तौर पर, मेरा पूरा बचपन “घंटा बेग गढ़इया” के बहुत क़रीब गुज़रा। ये पुराने लखनऊ का एक छोटा सा मोहल्ला है। ये नाम सुन कर हमेशा मेरी हँसी छूटी है। लेकिन घंटा बेग कौन थे, ये गढ़इया (तालाब) कैसे बनी और कैसे पाट दी गई, ये सब अपने मख़सूस अन्दाज़ में तफ़सील से बताया है हिमांशु बाजपेयी ने अपनी किताब में। इस किताब को पढ़कर मैं लखनऊ से ख़ुद को और ज़्यादा जुड़ा हुआ महसूस कर रहा हूँ।
हिमांशु बाजपेयी
जो लखनऊ में नहीं रहे हैं, उनके लिए बक़ौल वरुण ग्रोवर, ये किताब पढ़ के “पक्का वादा है, लखनऊ को जाने बिना आपको इस शहर से प्यार हो जाएगा। एक शहर को उसका ख़ास किरदार देने में कितने आम किरदार लगते हैं, ये आप यहाँ पढ़िए।”
प्रचलित अमरीकी टीवी सीरीज़ ‘गेम ऑफ़ थ्रोन्स’ के पिछले एपिसोड में एक किरदार की एक लाइन दिल छू गई: “भूल जाना, भुला दिए जाना, यही तो मौत है। हम क्या थे, हमने क्या हासिल किया, अगर हम ये भूल जाएँ तो हम इंसान नहीं, सिर्फ़ जानवर बनकर रह जाएँगे।” मुझे पूरा यक़ीन है कि हिमांशु बाजपेयी की किताब लखनऊ और लखनऊवा लोगों की याद संजो कर रखने में कामयाब होगी।
बेंगलुरु निवासी कफ़ील जाफ़री रंगकर्मी, लेखक, व अनुवादक हैं।
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