“देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय को पढ़ते हुए इस बात का अफ़सोस होता है कि हमारे देश में बढ़ती कट्टरता हमारी लम्बी वैचारिक परंपरा को किस तरह से ख़ारिज कर रही है,” सौरभ राय लिखते हैं।
पिछले दिनों अलीगढ़ में हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं ने महात्मा गांधी के एक पुतले पर गोली चलाई और नाथूराम गोडसे का जयकारा किया। हालाँकि सत्ता इसपर चुप्पी साधे रही, लेकिन जनता के बीच इस घटना की यथोचित भर्त्सना हुई। ऐसे कुछ लोग भी सामने आये जिन्होंने गोडसे के विचारों को, और महात्मा गाँधी की हत्या को उचित ठहराया। इन मतभेदों का लोकतंत्र में स्थान है। होना भी चाहिए। लेकिन पिछले कुछ दशकों में भारत में धार्मिकता बढ़ी है, और हमारी अपनी पीढ़ी इसकी साक्षी रही है। पिछले तीस वर्षों में धर्म और मंदिर जैसे मुद्दों पर देश में एक बड़ी राजनितिक ताक़त का खड़ा हो जाना इस बात का प्रमाण है कि विकसित लोकतान्त्रिक देशों से इतर धर्म और सत्ता को अलग करने में भारत असफल रहा है।
नरेन्द्र दाभोलकर, गोविंदराव पानसरे, और एम एम कलबुर्गी जैसे रेशनलिस्ट इनके हत्थे पहले ही चढ़ चुके हैं। तर्कसंगत चिंतन को बढ़ावा देने वाले शिक्षा संस्थानों पर भी इसी अभियान के तहत सुनियोजित हमले किए जा रहे हैं।
दुनियाभर के समाजशास्त्री इस बात पर एकमत हैं कि धार्मिक उग्रता पिछड़ेपन की निशानी है। जिस समाज या सभ्यता में वैज्ञानिक और तार्किक चिंतन को दबाया जाता है, वहां धार्मिक कट्टरपंथ को स्वतः बढ़ावा मिलता है। धार्मिक उन्माद आज के दौर में सिर्फ़ पिछड़े देशों में फल-फूल रहा है। अमरीका को अपवाद मानें, तो आज के सबसे धार्मिक देश सबसे पिछड़े हुए देश भी हैं। जहाँ भारत हिन्दू कट्टरता का शिकार है, और पकिस्तान, सिरिया जैसे मुल्क इस्लामी कट्टरता के शिकार हैं, वहीं सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक जैसे देश इसाई धर्मान्धता से त्रस्त हैं। कोई धर्म इसका अपवाद नहीं है।
इसके विपरीत नास्तिकता और उदारता का सीधा सम्बन्ध प्रगति से है। यूरोप इसका बड़ा उदहारण है। यूरोबैरोमीटर के अनुसार स्वीडन में केवल 19 प्रतिशत, नॉर्वे में 22 प्रतिशत, फ्रांस में 27 प्रतिशत, और डेनमार्क में 28 प्रतिशत लोग खुदको धार्मिक मानते हैं। ये देश प्रगति, सामाजिक न्याय, और खुशहाली के लगभग सभी मापदंडों पर आज विश्व में अग्रिम हैं। स्कैंडेनेविया और पश्चिमी यूरोप के अलावा कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण अमरीकी देशों में धार्मिक गुटों को समाज और राजनीती से अलग कर दिया गया है। ये इनके लोकतान्त्रिक सोच की बुनियाद है। इस पृथकीकरण का फायदा यह हुआ है कि धर्म एक निजी चिंतन का विषय (जो कि उसे होना चाहिए) बन गया है, और समाज-चिंतन व राजनीति में वैज्ञानिक व तार्किक सोच को बढ़ावा मिला है। इस्लामी देशों में भी बांग्लादेश, मलेशिया, इंडोनेशिया जैसे देश जहाँ धर्मनिरेपक्षता और लोकतंत्र को बढ़ावा मिल रहा है, मानव-विकास के सभी मापदंडों पर बाकी इस्लामी देशों की तुलना में आगे हैं।
अमरीका के भी सबसे धार्मिक राज्य सबसे गरीब और पिछड़े हुए हैं। उन्नीसवीं शताब्दी में दास-प्रथा हटाए जाने पर टेक्सास, मिसिसिप्पी इत्यादि इन राज्यों ने गृह युद्ध छेड़ा था। आज भी इन प्रान्तों में बहुसंख्यक वर्ग, यानी ईसाई श्वेत पुरुषों में धार्मिक उग्रता और असुरक्षा की भावना प्रबल है। पिछले तीन-चार शताब्दियों में दुनिया के अलग-अलग प्रान्त से आए आश्रितों के इस देश में फैली नस्लीय असुरक्षा यहाँ के बहुसंख्यक वर्ग में धर्मान्धता का संचार-प्रसार करने में मदद पहुँचाता है। ग्राम्शी के शब्दों में कहें तो यह सांस्कृतिक फ़ासीवाद का ही एक रूप है।
अपनी जातीय भिन्नता और असुरक्षा के सन्दर्भ में अमरीका और भारत कई मायनों में एक जैसे हैं। इसका सीधा उदहारण अमरीकी-श्वेत-पुरुष वर्ग और भारत के ब्राह्मणवादी-पुरुष-वर्ग में व्याप्त मनोवृति की समानता है। दोनों वर्ग, आंकड़ों के मुताबिक, अपने समाज के सबसे संपन्न वर्ग हैं, लेकिन दोनों गुटों में ख़ुद को पीड़ित बताने का आग्रह एक जैसा है। स्त्री सशक्तिकरण, शोषित जाति के पक्ष में आरक्षण, और समाज कल्याण से जुड़े प्रस्तावों से ये भयभीत रहते हैं। आज दोनों देशों में बढ़ रहा अतिराष्ट्रवाद और जातिवाद इसी असुरक्षा की भावना के प्रकट परिणाम हैं।
इस सन्दर्भ में सुप्रसिद्ध दार्शनिक देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय (1918-1993) का काम और भी महत्वपूर्ण लगने लगता है। इन्हें पढ़ते हुए इस बात का अफ़सोस होता है कि हमारे देश में बढती कट्टरता हमारी लम्बी वैचारिक परंपरा को किस तरह से ख़ारिज कर रही है। आस्तिक और नास्तिक विचारधाराओं के बीच शताब्दियों तक चला विवेकपूर्ण संवाद भारत की विस्तृत दार्शनिक परिपाटी का हिस्सा रहा है।
दर्शनशास्त्र के इतिहास में अनीश्वरवाद की परंपरा भारत से पुरानी कहीं नहीं है। पश्चिमी दर्शन के मुकाबले प्राचीन-भारत में ईश्वर के अस्तित्व पर बौद्धिक दृष्टि से कई महत्वपूर्ण तर्क और वितर्क हुए। हालाँकि पश्चिम में भी सुकरात, सेनेका, यीशु आदि ने भी अपने समय की राजसत्ता से लड़ने के लिए तार्किकता का सहारा लिया था; लेकिन इनमें से किसी को ईश्वर के अस्तित्व पर विचार नहीं करना पड़ा। आल्बेर कामु के अनुसार फ़्रान्सीसी क्रान्ति पश्चिम की पहली बड़ी घटना थी जब राजा के सामंती अधिकारों के साथ-साथ ईश्वर के अस्तित्व पर खुलकर सवाल उठाए गए थे। 21 जनवरी 1793 को केवल राजा ही नहीं, उसे संरक्षण देते ईश्वर का भी सर गिलोटिन के नीचे रखकर धड़ से अलग कर दिया गया था। फ़्रान्सीसी क्रान्ति आज अकारण ही लोकतंत्र का अभिमान नहीं है।
यूरोप के विपरीत भारतीय दर्शन में अनीश्वरवाद पर बहस काफी पुरानी है। वैदिक काल में ही भारतीय अनीश्वरवाद एक व्यापक और विस्तृत रूप ले चुका था। सांख्य, बौद्ध, जैन, मीमांसा, चार्वाक जैसे वैचारिक मतों से जुड़े दार्शनिकों ने ईश्वर के अस्तित्व पर महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए, और उनके रोचक वितर्क भी सामने आए। यह गुफ़्तगू शताब्दियों तक चली और इन्हें यथावत ग्रंथों में दर्ज़ भी किया गया। वैज्ञानिक, बौद्धिक, और सामाजिक दृष्टि से ये संभाषण अनमोल हैं।
देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय के मुताबिक भारतीय दर्शन में नास्तिकों की संख्या वैदिकों से कहीं अधिक रही है। उन्होंने कई संस्कृत स्रोत ग्रंथों का अध्यन कर यह उधृत किया है कि किस प्रकार ईश्वर के अस्तित्व को ख़ारिज करने के लिए अनीश्वरवादी परंपरा में सात अलग-अलग तत्वों को सृष्टि के निर्माण का प्रथम कारक माना गया है। ये हैं काल (time), स्वभाव (inherent nature), नियति (necessity), यदृच्छा (chance), भूत (elements), योनि (female womb), और पुरुष (male person)। जहाँ बौद्ध, जैन, और मीमांसा जैसे दर्शन में इनका अलग-अलग समुच्चयन दिखाई पड़ता है, वहीं सांख्य दर्शन में स्वभाव को, और चार्वाक दर्शन में भूत को प्रथम कारक माना गया। आगे चलकर दार्शनिकों ने स्वभाव और भूत कारकों का सुविधानुसार इस्तेमाल किया, और ये घुलमिलकर प्रकृतिवादी दर्शन का आधार बने।
सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टि की रचना ईश्वर ने नहीं की, बल्कि यह एक चिरकालीन विकासात्मक प्रक्रिया का परिणाम है। सांख्याचार्य मानते थे कि सृष्टि कई अवस्थाओं से गुज़रकर वर्तमान स्वरूप तक पहुंचा है। इतिहासकार सांख्य दर्शन की लोकप्रियता से भी परिचित रहे हैं। महाभारत के रचनाकाल तक सांख्य एक प्रतिष्ठित विचारधारा बन चुकी थी। शान्ति पर्व में भीष्म ने यहाँ तक कह गए हैं कि जो भी ज्ञान इस लोक में है वह सब सांख्य से ही हमें प्राप्त है –
अनीश्वर: कथं मुच्येदित्येवं शत्रुकर्षन।
वदन्ति कारणै: श्रैष्ठ्यं योगा: सम्यक् मनीषिण: ।।
वदन्ति कारणं चेदं सांख्या: सम्यग्विजातय:।
विज्ञायेह गती: सर्वा विरक्तो विषयेषु य: ।।
ऊर्ध्वं स देहात् सुव्यक्तं विमुच्येदिति नान्यथा।
एतदाहुर्महाप्राज्ञा: सांख्ये वै मोक्षदर्शनम् ।।
सांख्य दर्शन का प्रवर्तक कपिल मुनि को माना गया है, जिन्होंने ईसा से लगभग 700 साल पहले तार्किक आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को नकारा था। कपिल ने कर्मकांड के विपरीत ज्ञानकांड को महत्व दिया और सृष्टि के किसी अतिप्राकृतिक कर्त्ता को ख़ारिज किया था। कपिल के ज्ञानमार्ग का उल्लेख महाभारत के अलावा रामायण, उपनिषदों, स्मृतियों, और पुराणों में भी मिलता है। सांख्य और वेदांत दर्शन के बीच चले तर्क-वितर्क को विज्ञान और धर्म के बीच के प्राचीनतम बहस के रूप में देखा जा सकता है।
गौरतलब है कि आपसी मतभेदों के बावजूद सांख्य दर्शन को आस्तिकों में कभी नकारा नहीं गया। तार्किकता का सहारा लेते हुए वेदान्तियों ने भी ईश्वर के अस्तित्व के पक्ष में अपने वितर्क सामने रखे। इन संभाषणों से नास्तिक और आस्तिक दोनों धाराओं का बौद्धिक विकास हुआ। ‘श्वेताश्वतरोपनिषद’ के रचयिता ने वेदांत दर्शन का पक्ष लेने के बावजूद कपिल को ‘आदिसिद्ध’ बतलाया है। मुनि के जन्म का उल्लेख करते हुए उपनिषद् के रचयिता ने लिखा है कि कपिल मुनि में सृष्टि का सारा ज्ञान भरने के बाद सृष्टि के रचयिता ने उन्हें जन्म लेते हुए देखा –
यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः ।
ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे ज्ञानैर्बिभर्ति जायमानं च पश्येत् ॥
यह सच है कि भिन्न मतों को अधिग्रहित करने की प्रवृति वेदान्तियों में अधिक थी। आगे चलकर इन्हें, तथा वैशेषिक और न्याय दर्शन के अनुनाइयों को सत्तापक्ष का आश्रय भी किंचित अधिक मिला। वहीं दूसरी तरफ बौद्ध दर्शन के उदय के बाद प्रश्रय के आभाव में सांख्य दर्शन की लोकप्रियता धीरे-धीरे जाती रही।
भारतीय दर्शनशास्त्र के अध्येताओं ने स्वीकारा है कि बुद्ध सांख्य दर्शन से प्रभावित रहे। तथागत के जन्मस्थान का नाम संभवतः कपिल मुनि से प्रेरित होकर ही ‘कपिलवस्तु’ पड़ा था। बुद्ध के जीवन पर लिखे गए सबसे महत्वपूर्ण और प्राचीन ग्रंथों में से एक, अश्वघोष द्वारा रचित ‘बुद्धचरित’ के अनुसार बुद्ध ने अपने जीवनकाल में ईश्वर के अस्तित्व पर विचार करना गैरज़रूरी माना। अश्वघोष ने स्वीकारा है कि बुद्ध ईश्वर को माया से अधिक कुछ नहीं मानते थे। बुद्ध के दर्शन में मनुष्य का कर्म उसके परिणाम का एकमात्र कारक है। यही कारण है कि अज्ञानता और दुख से निर्वाण पाने के लिए बुद्ध द्वारा दिखाया गया अष्टांगिक मार्ग कर्म पर आधारित है, न कि धार्मिक अनुष्ठानों और प्रर्थानासिद्धि पर।
बौद्ध दर्शन के व्याख्यान और सूत्र, सांख्य दर्शन के विपरीत, हमारे पास उपलब्ध हैं। आगे चलकर तथागत के अनुनाइयों की महायान शाखा से सम्बद्ध दार्शनिकों ने भी ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार किया, हालाँकि, जैसा देबीप्रसाद चट्टोपाध्याय ने स्वीकारा है, इनके अपने अंधविश्वास कम नहीं थे। महायान बौद्ध दर्शन की दो शाखाएं सामने आईं, जो अनीश्वरवाद की दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण हैं। दूसरी शताब्दी के उत्तरार्ध में आए बौद्ध चिन्तक नागार्जुन ने शून्यवाद का सिद्धांत रखा जिसमें उन्होंने यथार्थ को माया करार दिया। चौथी शताब्दी के आते-आते महायान बौद्ध दर्शन में एक दूसरी परंपरा भी चली, विज्ञानवाद, जिसे योगाचार भी कहा गया। योगचारियों के अनुसार केवल मन और उससे जुड़े अनुभव यथार्थ हैं, और बाकी सब भ्रम।
बुद्ध से समय कुछ पहले आए महावीर द्वारा स्थापित जैन दर्शन ने भी तार्किकता का सहारा लेकर ईश्वर के अस्तित्व का खंडन किया। जैन दर्शन के अनुसार श्रृष्टि छह द्रव्यों – जीव, पुद्गल, आकाश, काल, धर्म, और अधर्म – से बनी है जिनका अस्तित्व चिरकालिक है। जैन दार्शनिकों ने ब्रह्माण्ड को सार्वभौमिक प्राकृतिक नियमों द्वारा स्वयं संचालित माना। इनके अनुसार ईश्वर, जिन्हें आस्तिक एक अमूर्तिक वस्तु मानते थे, ब्रह्माण्ड (एक मूर्तिक वस्तु) का निर्माण नहीं कर सकता।
भारतीय अनीश्वरवाद की सबसे विलक्षण धारा, हमारी समझ से, चार्वाक दर्शन की है। इनके अनुसार भूमि, जल, अग्नि, वायु जैसे प्रत्यक्ष तत्वों के बाहर सृष्टि में कुछ नहीं है। इन्होंने स्वर्ग, नरक, आत्मा, ईश्वर इत्यादि आस्तिक मान्यताओं का घोर प्रतिकार किया, और तर्क, अनुभव, और आयुर्वेद शास्त्र (तत्वों के मिश्रण से अन्य तत्व बनाने की प्रक्रिया) को अपने दर्शन का आधार माना। लोकसमाज में अपनी व्यापक प्रसिद्धि के कारण इसे लोकायत दर्शन भी कहा गया।
चार्वाक दर्शन का अग्रदूत बृहस्पति को माना गया है, जिन्हें चाणक्य ने भी अर्थशास्त्र का एक प्रमुख आचार्य माना है। हालाँकि चार्वाक दर्शन के बाकी ग्रंथों की तरह इनके द्वारा रचित ‘बार्हस्पत्य सूत्र’ को संभवतः वैदिकों द्वारा नष्ट कर दिया गया था, हमें अन्य ऐतिहासिक स्रोतों में चार्वाक पर पर्याप्त रूप से लिखा हुआ मिलता है, जिससे दर्शन की पुनर्रचना संभव है। इसपर और अधिक काम किए जाने की आवश्यकता है।
बहरहाल, चार्वाक दर्शन पर जो जानकारी हमें प्राप्त है, वे वेदान्तियों द्वारा रचित ग्रंथों में इनके पूर्वपक्ष तक सीमित है। चार्वाक दर्शन की भूमिका रखने के पश्चात इन ग्रंथों में इनका घोर विरोध देखने को मिलता है, जिसमें इन्हें दुष्ट और पतित की तरह प्रस्तुत किया गया है। रामायण में राम और जाबालि का संवाद प्रसिद्द है, जहाँ जाबालि, जिन्हें चार्वाक दर्शन से प्रेरित कहा गया है, मोक्ष और श्राद्ध जैसी मान्यताओं को अस्वीकार करते हुए राम पर व्यंग कसते हैं। वे कहते हैं कि मरे हुए आदमी को खाना देना क्या अन्न की बर्बादी नहीं। राम से वनवास से लौटने का आग्रह करते हुए वे परोक्ष पर प्रत्यक्ष को तरजीह देने की सलाह देते हैं –
स न अस्ति परम् इत्य् एव कुरु बुद्धिम् महा मते ।
प्रत्यक्षम् यत् तद् आतिष्ठ परोक्षम् पृष्ठतः कुरु ।।
इस सलाह को ख़ारिज करते हुए राम धर्म और सत्य की बात करते हैं। गौरतलब है कि वाल्मीकि रामायण का जो प्रारूप हमारे पास उपलब्ध है, वहां इन सर्गों की संरचना अचानक बदल जाती है। राम यहाँ अपने पिता दशरथ के उन्हें सलाहकार बनाने के निर्णय को झिड़कते हुए कहते हैं कि नास्तिकों को चोरों की तरह सज़ा मिलनी चाहिए। इन पंक्तियों के शुरू होने से पहले राम, अपने स्वभाव के अनुरूप, क्रोधित मालूम नहीं पड़ते लेकिन अचानक जाबाली के प्रति उनका द्वेष फूटता है –
यथा हि चोरः स तथा हि बुद्ध ।
स्तथागतं नास्तिकमत्र विध्हि ।
तस्माद्धि यः शङ्क्यतमः प्रजानाम् ।
न नास्ति केनाभिमुखो बुधः स्यात् ।
जर्मन आलोचक अगस्त श्लेगेल, जिन्हें रामायण समेत गीता और शेक्सपीयर का जर्मन अनुवाद करने का श्रेय जाता है, इन पंक्तियों को मूलग्रंथ के बाहर का बतलाते हैं। उन्होंने इन पंक्तियों का अनुवाद करने पर आगे पश्चाताप भी प्रकट किया है। भारतीय दर्शन के अध्येता जयंतनुजा बंदोपाध्याय ने प्राचीन भारत की वर्ग संरचना पर किए गए महत्वपूर्ण शोध में इन सर्गों को बाद के ब्राह्मणों द्वारा वेदांत विरोधियों के खिलाफ चलाई गई मुहीम का हिस्सा कहा है।
महाभारत में भी चार्वाक का उल्लेख है। कुरुक्षेत्र से जीतकर लौटे युधिष्ठिर को चार्वाक नाम के एक ब्राह्मण घोर नरसंहार के लिए उत्तरदाई बतलाकर लज्जा से मरने को कहते हैं। युधिष्ठिर को पश्चाताप होता है और वे आत्महत्या करने का निर्णय लेते हैं, लेकिन वहां मौजूद अन्य ब्राह्मण उन्हें संभाल लेते हैं। वे युधिष्ठिर से कहते हैं कि चार्वाक दरअसल एक असुर है और दुर्योधन का मित्र है। युधिष्ठिर चार्वाक को जलाकर भस्म करने का हुक्म देते हैं और बाकी ब्राह्मणों पर धन-धान्य की वर्षा करते हैं।
चार्वाक को असुर सभ्यता से जोड़कर देखने का आग्रह वेदान्तियों में यथेष्ट रूप से देखा गया है। पद्मपुराण में उल्लेख है कि असुरों को बहकाने के लिए देवगुरु बृहस्पति ने वेदविरोधी मत चार्वाक दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया था। यहाँ ग्रीक कथाओं का प्रोमेथियस स्वतः याद हो आता है जिसने देवों से आग चुराकर मनुष्यों को दे दिया था। कहने की आवश्यकता नहीं है कि वेदान्तियों ने ‘असुर’ शब्द का प्रयोग भारत के मूलनिवासियों के लिए किया है। यहाँ कोसंबी द्वारा उधृत एक प्रसंग का उल्लेख किए बिना बात पूरी नहीं की जा सकती। ऋग्वेद में असुरघ्न, यानी देवों के राजा इंद्र, वर्सिखा नामक एक असुर का उसके बच्चों समेत वध करते हैं। जिस नगर में वर्सिखा बसते थे, उसका नाम ऋग्वेद में हरियुपिया है। कोसंबी ने हरियुपिया और सिन्धु घाटी के हड़प्पा के बीच समानताओं दर्शाया है, और प्रस्तावित किया है कि सिन्धु घाटी सभ्यता का विनाश आर्यों ने किया था। इसपर आगे शोध किए जाने की ज़रुरत है।
बात चाहे जो भी हो, अपनी भौतिकवादी दृष्टि और तार्किक सिद्धांतों पर खड़े होने का माद्दा रखने के कारण चार्वाक भारतीय अनीश्वरवाद की एक मुकम्मल दार्शनिक परंपरा थी, इसपर कोई दो राय नहीं है। भारत के विपरीत भौतिकवाद और अनीश्वरवाद की परंपरा पश्चिम में नई है। यह भी स्वाभाविक है कि शताब्दियों के वैज्ञानिक विकास पर खड़ा आधुनिक भौतिकवाद पुरातन चार्वाक दर्शन से अधिक सार्थक है। कार्ल मार्क्स ने फायरबाख के दर्शन पर अपने विचार रखते हुए भौतिकवाद को आधार बनाकर ईश्वर के अस्तित्व को ख़ारिज किया है –
किसी ईश्वर ने आदमी को नहीं बनाया, बल्कि आदमी ने ईश्वर को बनाया है, जिसमें वह अपना प्रारूप देखता है। व्यक्ति के समाज का निर्माण के लिए भूत, प्रेत, तंत्र-मंत्र के समाज का नष्ट होना स्वाभाविक ही नहीं आवश्यक भी है।
विश्व में आधुनिक नास्तिकतावाद वैज्ञानिक प्रगति और मार्क्सवाद की देन है। लेकिन इसके मूलभूत विकास में अनीश्वरवाद की लम्बी परंपरा भी शामिल है, जिसका बीज भारत ने शताब्दियों पहले बोया था। जैसा कि हमने पहले लिखा, नास्तिकता का सीधा सम्बन्ध प्रगति से है। भारत में भी वैज्ञानिक विकास और अनीश्वरवाद के दौर परस्पर साथ चले। यह संयोग नहीं है कि अनीश्वरवाद के इस काल ने हमें आर्यभट्ट और सुश्रुत जैसे विद्वान दिए। मानव प्रगति समय को आलोचनात्मक दृष्टि से देखने-समझने और तार्किक स्तर पर परखने की देन है। ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार कर लेने का अर्थ है भाग्य और अंधविश्वास के हाथों भविष्य को सौंप देना। अल्पकाल में शायद यह जीवन की विसंगतियों में राहत पहुंचाता हो, दीर्घकाल में यह एक समाज को विचारशून्य अन्धकार में धकेल देता है। मार्क्स ने धर्म को लोगों की अफीम ऐसे ही नहीं कहा था।
भारत में नास्तिकता के सन्दर्भ में भगत सिंह को याद किए बिना बात पूरी नहीं की जा सकती। भगत सिंह ख़ुद मार्कस्वाद और भौतिकवाद से प्रभावित थे। जेल में बिताए आखरी दिनों में अपने मशहूर लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ में उन्होंने लिखा –
मनुष्य जब अपने पैरों पर खड़ा होने का प्रयास करता है और यथार्थवादी बन जाता है, तब उसे श्रद्धा को एक ओर फेंक देना चाहिए और उन सभी कष्टों, परेशानियों का पुरुषत्व के साथ सामना करना चाहिए, जिनमें परिस्थितियाँ उसे पटक सकती हैं।
कोई भी प्रगतशील समाज धार्मिक उग्रता के सान्निध्य में खड़ा नहीं हो सकता। किसी भी धर्म में कट्टरता का सीधा नुक्सान उसी धर्म को मानने वाले बहुसंख्यकों को पहुँचता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि इस्लामी कट्टरपंथ का शिकार आज सबसे अधिक ख़ुद मुसलमान हैं। धर्म और आस्था व्यक्तिगत चिंतन के विषय हैं, द्वेष और संत्रास के प्रचार-प्रसार के यंत्र नहीं।
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान जो दो मुख्य धाराएं सामने आईं वे अपने-अपने तरीके से एक आज़ाद और प्रगतिशील भारत का सपना देख रहीं थीं। भगत सिंह के विपरीत महात्मा गाँधी आस्तिक होकर भी सहिष्णु थे। इस सन्दर्भ में गांधी भी उसी उदारवादी और तार्किक परंपरा का निर्वाह कर रहे थे जो सदियों से भारतीय दर्शन का धरोहर रहा है। हमारे समाज में बढ़ती धार्मिक कट्टरता न केवल इस परंपरा का ह्रास करता है, बल्कि एक डरावनी प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है। गाँधी और भगत सिंह के भारत का सपना भूलकर कहीं हम गोडसे का भारत तो नहीं बनते जा रहे हैं?
सबाल्टर्न 3 के लिए लिखे गए आलेख का संशोधित पाठ।
बेंगलुरु निवासी सौरभ राय कवि, अनुवादक, व पत्रकार हैं। इन दिनों वे बेंगलुरु रिव्यु का संपादन कर रहे हैं।
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