“यह कविता अथवा काव्यभाषा ही है, जो मृत्यु से संघर्ष का दम रखती है, उसे नीचा दिखाती है, उसे झटक देती है,” सुधीर रंजन सिंह लिखते हैं।
“आर्टिस्ट बच्चा ही होता है। यही उसकी काॅमेडी और यही उसकी ट्रेजडी है” (शमशेर की डायरी, 5-6, ’55)। इसकी एक व्याख्या बनती है कि आर्टिस्ट अपनी कल्पनाशीलता से बच्चा होता है, यह काॅमेडी है; आर्टिस्ट बचपन में जाना चाहता है- बेहद स्मृतिशील होता है; यह ट्रेजिडी है।
शमशेर की कविता ‘चाँद से थोड़ी-सी गप्पें’ का उदाहरण लें, वह काॅमेडी है। कवि एक दस-ग्यारह साल की लड़की के निमित्त बच्चा बन जाता है। इसमें शैशव की प्राप्ति का रोमांस है। ‘लौट आ ओ धार’ में प्राप्ति-भाव नहीं, स्मृति भाव है- बीते समय को दूर से देखना। इसमें ट्रेजिडी संकेतित होती है।
लौट आ ओ धार
टूट मत ओ साँझ के पत्थर
हृदय पर
(मैं समय की एक लंबी आह
मौन लंबी आह)लौट आ, ओ फूल की पंखड़ी
फिर
फूल में लग जाचूमता है धूल का फूल
कोई, हाय।
कविता की व्याख्या की बजाय हम इस पर बात करें। शायद इस रास्ते कोई सार्थक व्याख्या निकल आएगी। ‘लौट आ ओ धार’ पंक्ति में अरुग्न अवसाद छुपा है- अरुग्न-अविकारी। करुणा और पीड़ा का अनुभव करते हुए ही इस पर सार्थक सोचा जा सकता है (पीड़ा के अनुभव के साथ सोचना सीखो।- ब्लैंषो)। यह हमारी स्मृति-चेतना को प्रकम्पित करती है- व्यक्ति-प्रसंग और सामूहिक भावना दोनों को ही। जैसे किसी की अर्थी निकलने वाली हो और वहाँ खड़े होकर हम सोच रहे हों, उस तरह से सोचने की ज़रूरत है। क्योंकि मुझे लगता है ‘लौट आ ओ धार’ जैसे संक्षिप्त पद का रूपक ऐसी ही किसी घड़ी में सोचा जाता होगा। और हमारी समझ से रूपक गढ़ने की जो प्रक्रिया होती होगी, उसी तरह की किसी प्रक्रिया से गुज़रकर रूपक के अर्थ में जाया जा सकता है। यथार्थ के धरातल पर न सही, अनुभूति के धरातल पर सही, यह ज़रूरी है।
धार किस विधि से लौटती है? धार लौटती है स्मृति में जीवन पाकर। स्मृति बिम्बों में प्रत्यक्ष होती है, रूपक और प्रतीकों में प्रत्यक्ष होती है। बिम्ब प्रायः यथार्थ के समरूप होते हैं। स्मृति के लिए वे इस रूप में काफी महत्त्व रखते हैं। रूपक और प्रतीक इस मायने में महत्त्वपूर्ण हैं कि वे बिम्ब-गुण से युक्त होते ही हैं, उनका सांस्कृतिक सन्दर्भ प्रबल होता है। उनमें एक परम्परा बोल रही होती है।
हिन्दी की अपनी परम्परा है, अपनी स्मृतियाँ हैं- रूपक-निर्माण की, प्रतीकों की, क्रिया-पद के प्रयोगों की। हम ‘आ’ अथवा ‘आओ’ क्रिया की परम्परा की पड़ताल करें तो उससे भी इस कविता का अर्थ थोड़ा खुल सकता है। प्रसाद की प्रसिद्ध कविता है, जिसकी प्रथम पंक्ति है- ‘उठ-उठ री लघु-लघु लोल लहर’। अन्तिम पंक्ति है- ‘आ चूम पुलिन के विरस अधर’। स्मृति की लहर उठो और रेतीले किनारों को आकर चूमो – यह अर्थ बनता है। प्रसाद की कविता के केन्द्र में स्मृति की पुकार है, जो सांस्कृतिक रूपकों की खोज में सक्रिय रहती है, और जिसका अन्तिम परिणाम ‘कामायनी’ है। मनु की चिन्ता में ‘लौट आ ओ धार’ जैसी ही पुकार है।
शमशेर का ध्यान कहीं भी प्रसाद पर गया है, इसका हमें ध्यान नहीं है। लेकिन प्रसाद की ‘चिन्ता’ शमशेर में है, मुझे यह बात पक्की लगती है। छायावादियों में शमशेर के प्रिय कवि निराला और पंत हैं। निराला के पहले संग्रह ‘परिमल’ की पहली कविता है ‘मौन’। उसे शमशेर ने अपने एक आलेख में सबसे पहले उद्धृत करते हुए उसकी व्याख्या की है।
बैठ ले कुछ देर
आओ, एक पथ के पथिक से,
प्रिय, अंत और अनंत के
तम-गहन जीवन घेर।
‘आओ’ किसलिए? शमशेर की व्याख्या पर ध्यान दें- ‘‘निराला जी क्या कह रहे हैं? वह कह रहे हैं इस मौन में अपने आपको सहज सरल रूप में, जैसे हम अपनी अन्तरस्मृति में हैं, घुला-मिला लें। इस गहन जीवन में अपने को लीन कर लें।’’ यह कोई दुर्लभ कथन अथवा व्याख्या नहीं है। महत्त्व की बात है शमशेर द्वारा अपने आलेख में सबसे पहले व्याख्या के लिए इस कविता का चुनाव। हमें अपने बोलने-लिखने में सबसे पहले क्या याद आता है, इसका ख़ास अर्थ होता है। और जगह नहीं भी होता हो, लेकिन यहाँ अर्थ निकल रहा है। निराला की ‘मौन’ कविता के बहाने यह विश्वसनीय आत्मकथन है। इससे शमशेर की ‘अन्तरस्मृति’ के महत्त्व की पुष्टि होती है। इस गहन जीवन में अपने को लीन करना, जैसे हम अपनी अन्तरस्मृति में हैं- यह शमशेर की प्रकृति है, शमशेर की कविता की प्रकृति है। शमशेर की कविता स्मृति की पुकार की कविता है। इस तरह शमशेर द्वारा निराला की ‘मौन’ कविता को व्याख्या के लिए चुनना आकस्मिक नहीं है। यह आलोचकीय प्रयोजन का विषय नहीं, इसमें कवि के ‘आत्म’ की सिद्धि हुई है।
स्मृति के केन्द्र में ‘आत्म’ है- यानी ‘अहं’। ‘अहं’ हाथ-पैर या आँख के समान जड़ तथ्य नहीं है। इसलिए उसकी अभिव्यक्ति भाषा जैसी संकेत व्यवस्था के अन्तर्गत ही सम्भव है। लकां के सहारे कहें तो ‘अहं’ होता नहीं है, वह संकेतकों के द्वारा आता है। ‘लौट आ ओ धार’ या आगे कोष्ठक में आई पंक्ति ‘मैं समय की लम्बी आह/ मौन लम्बी आह’ में ‘अहं’ की साफ झलक है। इसमें किंचित आत्मदैन्यता है, लेकिन नार्सिसस (आत्मरति-) भाव के साथ। शमशेर शीर्ष नार्सिसस (आत्ममोहित) कवियों में से हैं। वैसे प्रत्येक कवि नार्सिसस होता है, क्योंकि कविता मुख्यतः आत्मपरक विधा है। स्वयं कवि कविता का सबसे जीवन्त विषय है। कविता सबसे अधिक कवि को ही प्रतिबिम्बित करती है। कवि का ‘अहं’ नार्सिससिज़्म के मार्ग से शरीरधारी होता है। लेकिन बड़ा से बड़ा नार्सिसस भी जीवन के चक्करदार मार्ग पर चलते हुए झटके का शिकार होता है। इससे आत्मदैन्यता पैदा होती है। दोनों बातें जुड़कर आत्मस्फूर्त कल्पना को विस्तार देती हैं- एक ऐसी कल्पना, जिसमें मृत्यु के बाद भी मृत्यु नहीं है। पुनः जीवन! पुनः जीवन!
लौट आ, ओ फूल की पंखड़ी
फिर
फूल में लग जा
इस पंक्ति पर आगे हम और बात करेंगे। अभी हम बात कर रहे हैं ‘आ’ अथवा ‘आओ’ क्रिया पर। शमशेर के प्रिय कवि पंत के यहाँ यह क्रिया है कि नहीं और किस अर्थ में है, इस तरफ मेरा ध्यान नहीं गया है। ‘आना’ ज़रूर है- ‘प्रथम रश्मि का आना रंगिणी!’ यह बहुत बाद की बात है कि उन्होंने कहा- ‘पुरानी ही दुनिया अच्छी/ पुरानी ही दुनिया!’ इसमें लौट आ ओ धार जैसी ध्वनि अवश्य है, लेकिन वाक्य में वज़न दशांश भी नहीं है। बहरहाल, शमशेर शुरू के पंत के ऋणी हैं। उनके शब्द-सौन्दर्य, कल्पनाशीलता और सुरुचि का, उनकी आत्ममुग्धता का भी। महादेवी ‘जो तुम आ जाते एक बार’ कहकर ठहर जाती हैं, लेकिन उनमें पर्याप्त ‘पैशन’ है। उनमें प्रच्छन्न स्मृति-व्याकुलता है। यह शमशेर में भी खूब है। इस रूप में वे महादेवी की ‘मैं नीर भरी दुख की बदली’ जैसे भाव के विकास के कवि हैं। निराला का तो उनके सन्दर्भ में ख़ास महत्त्व है ही, उनमें प्रसाद वाली वह अनुभूति भी है जिसमें गहरा स्मृति-दंश होता है।
‘आ’ अथवा ‘आओ’ शमशेर का प्रिय पद है। एक कविता ही है ‘आओ’ शीर्षक से। एक दूसरी कविता है ‘ओ युग आ’ शीर्षक से। इसके अलावा भी उनकी कविता में यह ‘डाॅमिनेटिंग’ क्रिया के रूप में आता है। जैसे- ‘अकेला हूँ, आओ’ या ‘आओ, इकहरी हैं लहरें/अहरह’ आदि। ‘आ’ शमशेर की कविता की केन्द्रीय क्रिया क्यों है? इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए और सबके बीच सम्बन्ध-सूत्रों की खोज भी करनी चाहिए।
‘आओ’ 1948 की कविता है। ‘कुछ कविताएँ’ संग्रह में शामिल होने से पहले ‘युग चेतना’ में छपी थी। उसे पढ़कर 21.02.1958 की तारीख में जगत शंखधर ने शमशेर को एक पत्र लिखा था। कविता छोटे-छोटे तीन भागों में है। दूसरे भाग का पहला स्टैंजा है-
कौन उधर है ये जिधर घाट की दीवार… है?
लहरों की बूँदों में
करोड़ों किरनों
की ज़िन्दगी
का नाटक सा: वह
मैं तो नहीं हूँ?
जगत शंखधर ने पत्र में जिज्ञासा प्रकट की थी कि प्रथम पंक्ति का अन्तिम पंक्ति उत्तर है न? और उन्होंने बेझिझक स्वीकार किया था कि इन दोनों पंक्तियों के बीच का अंश वे बहुत कुछ नहीं समझ पाए। शमशेर ने पत्र के उत्तर में जगत शंखधर की जिज्ञासा वाली बात को मान लिया। उनका स्पष्टीकरण केवल इतना है कि ‘मैं तो नहीं हूँ’ में प्रश्नचिह्न नहीं है (‘कुछ कविताएँ’ वाले पाठ में प्रश्नचिह्न हटा भी दिया गया है)। ‘‘यह तो इन पंक्तियों का सम्बद्ध भाव है’’ स्वीकार करते हुए शमशेर ने बीच की पंक्तियों के बारे में कहा, ‘‘इस भाव के पीछे जो यथार्थ है, जिसने यह चित्र मेरे सामने ला खड़ा किया, वह और ही कुछ है- मगर कविता से उसका सम्बन्ध नहीं। ख्वह यथार्थ… वह मेरे लिए जहाँ मूर्त हो गया है, स्वयमेव, वह यह पंक्ति है: ‘वह जल में…’ यद्यपि वह ‘दीवार ही है’ – और यह प्रश्न ‘कौन उधर है?’…,।’’ यह कथन अवचेतन पर आधारित वैसी कल्पना का संकेत करता है, जैसी मनोविश्लेषण में होती है। जादू, प्रतीक और स्वप्नों के प्रति आग्रह! एक ऐसी कल्पना, जो बुद्धि के नियंत्रण से मुक्त हो या जिसमें असंगत को संगत बनाने के प्रयत्न व्यर्थ साबित हो जाएँ। यूरोप में जिसे अतियथार्थवादी कला के रूप में पहचाना गया।
‘आओ’ की उपर्युक्त पंक्तियों से ‘लौट आ ओ धार’ पद को जोड़ने की इजाजत दीजिए (यद्यपि दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं है)। जल में समाती चली गइ्र्र घाट की दीवार और लहरों की बूँदों में करोड़ों किरनों की ज़िन्दगी- कवि अथवा कर्ता उधर है। उधर होने में पता नहीं और कितनी बाते हैं! कविता के पहले भाग में दो स्टैंजा हैं-
तैरती आती है बहार
पाल गिराए हुए
भीने गुलाब – पीले गुलाब
के।xxx xxx
जाफ़रान
जो हवा में है मिला हुआ
साँस में भी है।
पहले भाग की अन्तिम पंक्ति है,‘-खो दिया है मैंने तुम्हें।’ खो देने के बाद अतियथार्थ की रचना के सिवाय बचता क्या है! लेकिन दूसरे खण्ड की उद्धृत पंक्तियों में वास्तविकता को बदलने वाली बात है- अवचेतन की भूमि पर जाकर बिम्ब की रचना। कुछ उसी प्रकार के बिम्ब को पुकारा गया है ‘लौट आ ओ धार’ पद में। यह एक शक्तिशाली रूपकीय पद बन गया है। सत्य को पकड़ने का रूपक। सत्य क्या है? वह सिद्ध वस्तु नहीं, भ्रामक है। बिम्ब में उसकी भ्रामकत्कता का लोप नहीं होता, रूपक और प्रतीकों में होता है। रूपक और प्रतीक सत्य को घेरने में अधिक सक्षम हैं। भाषा-व्यवस्था के विभिन्न सैनिकों के बीच उन्हें कमाण्डर कहा जाना चाहिए।
बहरहाल, ‘आओ’ कविता से हम अपना ध्यान हटाएँ। दूसरी कविता है ‘ओ युग आ’ 1958 की। ‘लौट आ ओ धार’ 1959 की है- यानी एक साल बाद की। इसे ‘कुछ और कविताएँ’ में जगह मिली। ‘ओ युग आ’ को बाद के संग्रह ‘चुका भी हूँ मैं नहीं’ में जगह मिली। ‘कुछ और कविताएँ’ में इसे क्यों छोड़ दिया गया? कविता थोड़ी रेटाॅरिकल है, लेकिन इसमें रूपक भी खूब बाँधे गए हैं। एक रूपक है ‘कली की आदिम मुस्कान’-
ओ युग, आ
मुझे नया और नया और नया बना
जैसे कली की आदिम मुस्कान
नया ‘आदिम’ में है। इसमें मार्क्सवाद भी है। ‘आदिम’ साम्य-चेतना का प्रतीक है। ‘आदिम’ मनुष्यता का शैशव है। शैशव सौन्दर्यबोधीय होता है। उसकी पुकार सौन्दर्यबोधीय होती है। उसमें आदिम साम्य का सौन्दर्य होता है। आदिम-साम्य की स्मृति और उससे उद्भूत नवीनता ‘लौट आ ओ धार’ में लक्षित की जा सकती है।
कविताओं के बीच कड़ी खोजने का उद्देश्य शमशेर के मर्म को पकड़ना है। शुरू में ‘लौट आ ओ धार’ पंक्ति में हमने अवसाद होने की बात कही है। दूसरे शब्दों में, जब गेंद मृत्यु के पाले में है, तब यह पंक्ति सोची गई है। यानी मृत्यु-चिन्तन इसमें शामिल है। दूसरी पंक्ति में यह बात साफ हो जाती है-
टूट मत ओ साँझ के पत्थर
हृदय पर
कब्र पर जो घास उगती है, उसमें जीवन का संदेश होता है। कोष्ठक में आई पंक्ति ‘मैं समय की एक लम्बी आह/ मौन लम्बी आह’ में मैंने पीछे जिस ‘अहं’ की चर्चा की है, वह ‘टूट मत ओ साँझ के पत्थर/ हृदय पर’ में बल भरता है। ‘आह’ में विरोधाभासी रूप से संघर्ष की व्यंजना है। यह कविता अथवा काव्यभाषा ही है, जो मृत्यु से संघर्ष का दम रखती है, उसे नीचा दिखाती है, उसे झटक देती है। आगे की पंक्ति में यह बात आ गई है-
लौट आ, ओ फूल की पंखड़ी
फिर
फूल में लग जा
फूल की टूटी हुई पंखड़ी को पुनः फूल में लगने के लिए कहना मृत्यु का प्रत्याख्यान है। इस पंक्ति की उल्लेखनीय व्याख्या हमें मंगलेश डबराल के यहाँ देखने को मिली। उसमें कहा गया कि “फूल और पंखुड़ी किसी चीज़ के प्रतीक नहीं हैं, वे अलग-अलग स्तर पर जीवन और पूरी सृष्टि के रूपक की तरह ज़रूर हो सकते हैं। इस कविता में पंखुड़ी या तो फूल से टूटकर अलग हो चुकी है या हो रही है। शमशेर जैसे इस टूटन, कमी और अपूर्णता को पहचान लेते हैं और पंखुड़ी से लौट आने का आग्रह करते हैं। हम जब-जब अपने जीवन के अधूरेपन की पहचान कर रहे होंगे, यह कविता हमें अनायास याद आएगी।” यानी यह पंक्ति हमें अधूरेपन से मुक्ति दिलाती है। बात सुन्दर है। लेकिन प्रश्न है कि पंखड़ी का टूटना भी सृष्टि की पूर्णता का अंग नहीं है? दूसरे शब्दों में, क्या मृत्यु सृष्टि की पूर्णता से अलग है? मृत्यु को परे रखकर देखें तो सृष्टि अथवा प्रकृति का सन्तुलन नहीं बिगड़ जाता? सृष्टि के सन्तुलन के पीछे एक आदिम ट्रेजिडी है, जिसे ईसाइयत की ‘पतन’ की अवधारणा से समझा जा सकता है- आदम का पतन। आदम स्वर्ग में रहते हुए जितना भी भोला हो, वह उसकी पूर्णावस्था नहीं है। पीड़ा, अवसाद और आत्मचेतना के द्वारा ही पूर्णावस्था प्राप्त की जा सकती है। इस रूप में पतन स्वीकार है। ‘लौट आ ओ धार’ की अन्तिम पंक्ति है-
चूमता है धूल का फूल
कोई हाय।
पतन स्वीकार है, उसमें भविष्य की पूर्णावस्था का संकेत है। इस पंक्ति को पढ़कर विडम्बना के भीतर नये के जन्म की अनुभूति होती है। नये का जन्म ही मृत्यु से वास्तविक बदला है। इस अनुभूति के भीतर पंखुड़ी के पुनः फूल में लग जाने की कल्पना विलक्षण है। यह अन्तःप्रज्ञा के माध्यम से, बर्गसाँ की अवधारणा के सहारे कहें, ‘ए लाँ विताल’ (जीवन-शक्ति) की प्राप्ति है। शमशेर द्वारा फूल में पंखड़ी के लग जाने का आवाहन एक प्रकार से उनके खुद के जीवन की वास्तविकता बन गया है। इस मार्ग से वे समय की ग्रस्तता से मुक्त दिखाई पड़ते हैं। समय खुद शमशेरमयी हो जाता है- जीवन-शक्ति से युक्त!
आज समय जब स्मृतिहीन होता दिखाई पड़ रहा है और जीवन समय के आगे ज़्यादा ही झुक गया है, कहने की इच्छा हो रही है- लौट आ ओ शमशेर!

सुधीर रंजन सिंह हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि व आलोचक हैं। प्रस्तुत लेख वाणी प्रकाशन से प्रकाशित उनकी किताब ‘कविता की समझ‘ से उधृत है।
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