“पैंग की कविताएँ बेचैन करती हैं। कवि अपने शहरी जीवन का उत्सव मनाता है और इसी उत्सव की उत्सुकता हमारे एलियनेट होते चले जा रहे समाज की आस्था को ललकारती है,” सौरभ राय लिखते हैं।
सिंगापुर के चर्चित कवि एल्विन पैंग से मैं दिसंबर 2014 में चेन्नई प्रवास के दौरान मिला था। यहीं मैंने इनके साथ एक मंच पर छात्रों के बीच अपनी कविताएँ पढ़ीं, इनकी शांत गंभीर आवाज़ में इन कविताओं का अनुभव किया, और अगले कुछ दिनों तक इन्हें पढ़ता रहा। पैंग की कविताओं से गुज़रना बरसात के मौसम में जैज़ संगीत सुनने जैसा अनुभव है। भूमध्यवर्ती देश के इस कवि की कविताएँ शांत और धीमी सी हैं। ये धीरे-धीरे हमारे ज़ेहन में घुलती हैं, और मिठास जैसा कुछ छोड़ जाती हैं। ये अल्प शब्दों के कवि हैं। बावजूद इसके, इनकी कविताओं में अपने समय और समाज के प्रति स्वीकृति और तिरस्कार के बीच का द्वंद्व दिखलाई पड़ता है।
पैंग की कविताएँ बेचैन करती हैं। कवि अपने शहरी जीवन का उत्सव मनाता है और इसी उत्सव की उत्सुकता हमारे एलियनेट होते चले जा रहे समाज की आस्था को ललकारती है। सूक्ष्म स्तर पर लिखी गई बातों का कैनवास विशाल है। अपनी कविता ‘वह क्षण’ में कवि लिखता है –
वह क्षण जब चिड़िया का नन्हा बच्चा
जान जाता है, कि अंडे के कवच को तोड़कर
निकलने का वक़्त हो रहा है
यहाँ बात सिर्फ अंडे के कवच को तोड़ने की नहीं हो रही, बल्कि अपने देखने सोचने की सीमाओं को भी लांघने की भी हो रही है। कवि इन्हीं सूक्ष्म अनुभवों को समेटता है, और इन अनुभवों के बीच कवि की पीड़ा और चिंता दिखलाई पड़ती है। एलियट ने कहा था कि कविता आवेग को खुला छोड़ देने में नहीं, उसे दबाये जाने में बसती है। अपने आवेग को छिपाते हुए कवि नास्टैल्जिया को जगह देता चला जाता है। कभी कवि अपने उस प्रेस को याद करता है जिसे बंद कर दिया गया, तो कभी इतिहास के लक्षण-विज्ञान से जुड़कर उस पहाड़ पर चढ़ता है, जो आज तिब्बत है। नास्टैल्जिया के माध्यम से कवि अपने समय और समाज के प्रति अपना विरोधाभास व्यक्त करता है। ‘बारिश’ कविता में कवि कहता है –
इसी बारिश में
मेरे पिता भींगते थे
और दादा भी, मेहनत के पसीने में
इन्हीं बीहड़ सड़कों पर
जो इन दिनों बदल गई है शहर में।
बीहड़ सड़कों से शहर तक का सफर तय करती ये कविताएँ मूलतः अर्बन हैं। शहर के जीवन, यहाँ बसे लोगों के सपने, और यहाँ की चमक दमक के ऊपर यह कविताएँ अपना अलग दृष्टान्त गढ़ती हैं। कवि कभी स्वीकार करता है कि हम सब घुलमिलकर पत्थर बन जाएंगे और सिर्फ़ बारिशों का शहर बचा रहेगा, तो कभी ऐसे पर्दों की मांग करता है जिन्हें खोलने में ज़िन्दगी बीत जाए। कहीं कवि सिर्फ़ ज़रुरत पड़ने पर यादों को जगह देने की बात करता है, तो कहीं अपनी मेहबूबा के घर में प्रवेश करने का रास्ता तलाशता है। शहरी जीवन की विषमताओं और विडम्बनाओं को समेटती इन कविताओं की व्यंजना शक्ति में कवि का शब्द संसार संवेदनशील होने के बावजूद अलग थलग सा दिखलाई पड़ता है। तटस्थ रहते हुए, आलोचनात्मक हुए बिना कवि अपने आस-पास घटते दृश्यों को देखता है और इन्हें काव्य विन्यास प्रदान करता है। कवि की यही जागरूकता उनकी कविताओं में सिंगापुर के आधुनिक जीवन और समाज के रूपक गढ़ने में सहायक सिद्ध होती है। ‘इंजीनियर के लिए कविता’ में कवि ने कहा है –
नज़्मों को क्या मालूम
ऊर्जा, बल और तनाव के हस्तक्षेप? संतुलन का कैलकुलस?
उसके बचपन के सॉनेट लहरों में बिखरे हुए थे
जब तुम स्लेट पर खींची लक़ीरों और लफ़्ज़ों को देखते थे
मैदान और जंगलों की तरह
कवि के शब्दों की समरूपता विलक्षण है। शब्द बेहद सजावटी हैं, रूपवादी हैं, कर्कश नहीं हैं। कवि की खामोशी बेहतरीन है, आँखों की सफेदी का दिखलाई न पड़ना एक वाणिज्यिक घटना है, कवि का अकेलापन फ़ोन की सफ़ेदी और चाबियों का अपनी जगह में होना है। अपनी जगह पर मुकम्मल होते इन शब्दों का इस्तेमाल कवि बेहद व्यापक ढंग से अपने संसार और समय को तलाशने में करता है। ‘मेरी मेहबूबा का घर’ कविता में कवि लिखता है –
ये मेरी मेहबूबा का घर है।
उसकी शटर आँखें, ये बंद दरवाज़े उसके होंठ हैं।
ये रसोई जहाँ मैं बैठा हूँ
मेज़ की तरह शांत, नाश्ते सा ठंडा
दावत सा उतावला।
यहाँ कवि का महज़ दावत जितना उतावला होना कवि की तटस्थता और हताशा को दर्शाता है। कवि नास्टैल्जिया और इतिहास की जगह बनता हुआ अपने समय में हस्तक्षेप करता है, मगर बेहद संजीदगी के साथ। रोलाँ बार्थ ने कहा था कि इतिहास का काम प्रकृति के विपरीत है। जब इतिहास को नकारा जाता है, तभी वह अपना उद्देश्य पूरा कर रही होती है। एल्विन पैंग की कविताओं में इसी इतिहास का नकारा जाना बार-बार दिखलाई पड़ता है। आधुनिक समाज के द्वंदों में इतिहास बार बार कवि की सभ्यता से टकराता दिखलाई पड़ता है, और कवि उसे बेहद शांत और ठन्डे तरीके से विलग होकर देखता है। अपनी वाणिज्यिक अवस्थिति के कारण लगातार विदेशी आक्रमणों का शिकार रहने वाले भूखंड का इतिहास उकेरती गद्य कविता ‘जब बर्बर आएंगे’ में कवि कहता है –
अपने बच्चों को उनके मरे हुए पुरखों जैसे कपड़े पहनाओ। अपनी बेटियों की शादी उनके घरों में करवाओ।
जल्द ही, तुम्हारे और उनके जनाज़े एक से निकलेंगे।
सिंगापुर के इस कवि का सिंगापुर कभी बारिश में भींगता नज़र आता है, तो कभी बर्बरों के साथ अपने इतिहास को जोड़ता दिखलाई पड़ता है। कहीं कवि अपने शहर में बढ़ती महंगाई को व्यंगात्मक तरीके से दिखता हुआ अपने घर को बड़ा करता चला जाता है, तो कहीं शहर के तड़क भड़क के बीच अपनी पत्रिका को बेस्वाद करार देता है। कवि अपनी विस्तृत काव्य दृष्टि से घोषणा करता है कि सिंगापुर उसका शहर है और ये कविताएँ यहाँ की सबसे साफ़ आवाज़ हैं। पैंग की कविताओं को पढ़ते हुए हमें एहसास होता है कि अच्छी कविता लिखना, और उन्हें पढ़ा जाना कितने बेहतरीन अनुभव हैं।
प्रस्तुत हैं एल्विन पैंग की कुछ कविताओं के अनुवाद –
वह क्षण
वह एक क्षण
जब कोई अपना हो जाता है पराया
मैं उस पल को बड़ी शिद्दत से तलाश रहा हूँ।
ख़ुद-ब-ख़ुद आहिस्ता से छूटना था उसे,
टहनी की खाल में अटका हुआ
वो अकेला पत्ता
बजाय, एक विशेष क्षण होता है
जो है, और जो हम सोचते हैं
को अलग करता हुआ
उस लड़के की तरह जो एक सबेरे उठकर
गला साफ़ करता हुआ
ख़ुद की आवाज़ नहीं पहचान पाता
वह क्षण जब चिड़िया का नन्हा बच्चा
जान जाता है, कि अंडे के कवच को तोड़कर
निकलने का वक़्त हो रहा है
जब एक बूढ़े को एहसास होता है
कि अगले बरस की बरसात
वो नहीं देख पाएगा।
इस पल के पार हम अंधे होते हैं,
इस क्षण से ख़ुद को निकाल कर
देखते हुए।
कितना समय बीत जाता है
इस क्षण के होने को नकारने में,
ढकने में, इस क्षण को शब्दों से,
रेत के महलों से समंदर को रोकने में,
और लहरें आकर देखतीं हैं इन्हें
अजनबियों की तरह।
मग़र मैं उस लम्हें से मिलूंगा
पूछूंगा उसका नाम, कि जब वो आये,
मैं कर सकूँ उसका स्वागत, और मिल सकूँ उससे
उसकी आँखों में झांकते हुए, बेबाक़, बेख़ौफ़
बराबरी के साथ।
बंद प्रेस
(प्रोजेक्ट आयबॉल के लिए, जिसे २८ जून, २००१ को बंद कर दिया गया था)
पिछले प्रकाशन के पन्नों की चरमराहट के बीच आपने जो सुना
वो हमारी दुनिया की बची-खुची ज़मीन थी
झुंझलाहट थी, सांसें थी, स्याही थी बस उतनी,
जितनी हमारे कागज़ के नन्हें चिथड़ों को ज़िन्दगी से जूझने,
और फिर उन्हें दम तोड़ता देखने के लिए ज़रूरी थी।
आँखें तड़क भड़क की ओर मुड़ रहीं थी, हम बेस्वाद थे
जिस दिन हम मरे, हमने सुना
सायप्रस में गोली चली थी,
और चली गयी थी किसी औरत की आँखों की रौशनी,
मातम मनाये जा रहे थे, मग़र हमारे लिए कोई नहीं रोया।
आख़िर, पत्रिकाएं फिर भी छप रहीं थी
रंगों को शब्दों में मथती हुई
काग़ज़ फिर भी निकल रहे थे छिटकते हुए
पुल के नीचे बहते पानी की मानिंद, और वक़्त
फिसलता जा रहा था, इंन्सानों की तरह
ज़रूरी काम-काज टालते हुए।
आज काग़ज़ों के क़ाबिल नहीं
हमारे ईमान और इरादों की बहस
जो जैसा है, रहने दो, आज
बहने दो इन कागज़ों को एक आख़री बार
बजाय यह सोचने के, कि हम इतनी दूर आ सके।
घर वापसी
उस दिन लहरों की दिशा बदल जाएगी
अपने सर को धीरे से रखेगी वह
किनारों के नरम गालों पर।
जम्बू के घने दरख़्तों से
झरने लगेंगे गीले हरे पत्ते, ज़मीन को वापस कर दिए जाएंगे
उसके हिस्से के आंसू।
हर बादल अपनी जगह तलाश लेगा
सूरज को एहसास होगा
उनकी हिम्मत का।
कितनी देर से मैं सुनता रहा हूँ
अपने एकांत में खड़े पहाड़ों की पुकार को,
नदियों को, समंदर की तलाश में भटकते हुए
मैंने देखा है, तुझमें कैद सदियों को
जैसे चिड़ियों की जमात, एक साथ फड़फड़ाती है अपने पंख
तुम्हारे दिल के अंदर कहीं।
बस उसी क्षण, मैं तुम्हारी देह की उदासी को
अपनी देह से आज़ाद करना चाहता हूँ,
और पिंजरे के ताले से आवाज़ आएगी
खुलने की।
बारिश
हम बारिश के साथ रहते हैं।
हलकी बारिश, तेज़ बारिश।
सर्द करती, सताती, भिगोती, हैरान करती
बेमौसम, बेरहम बारिश।
बारिश जो चुभती है उँगलियों सी,
छाते को ललकारती हुई;
राहत भरी बारिश
जिसमें आप शामिल होते हैं
अपने तपते चहरे की ऊँगली थामे।
बारिश, उलटे पड़े ताड़ के पत्ते पर
जिसकी थाप कानों से टकराती है
पंखों के फड़फड़ाने की तरह,
उड़ने को तैयार।
बारिश, जैसे कोई मौसीक़ी,
एक किस्म की आवाज़।
जिसकी झंकार सुनते हैं आप
खुली खिड़की के सामने बैठ
धीरे से कहते – बारिश –
अपनी अलग सी ज़ुबान में
अकेले, ख़ुद से।
बारिश जो घास और कंक्रीट पर
एक जैसी गिरती, और बरसती चली जाती है
जानें कितनी रातों तक
आप के सपने बने होते बारिश के,
भूरे टीले के किनारे बेसब्र
बारिश की नज़्मों में भींगते कंकड़
ऊब डूब हिलते हैं।
मुझे याद है उन क़दमों की आहट
बहते पानी की कलकल के साथ
छप छप गिरती हुई जब वो
अपनी मौसिक़ी ख़ुद सजाती थी
और गुनगुना उठती थी अपने आने की तासीर में
बारिश का तोहफा। बारिश की पुकार।
हर तरफ़ बारिश, इतनी मामूली
कि लगभग एक त्रासदी। बारिश जिसमें हम बस जाते
मुकम्मल, और इतने ग़ैर हाज़िर जैसे मुहब्बत,
बारिश जिसे हम नज़रअंदाज़ करते हुए भी
कभी जुदा नहीं हो पाते,
बारिश जिस से हम भागते फिरते
कांच और पत्थरों के नीचे आसरा तलाशते हुए
हम दावा करते – ज़िन्दगी कहीं और है।
बारिश, धूसर रंग की
जैसे उदासी आसमान से बरस पड़ा हो,
और आधी रात की ज़ालिम बारिश
जो रात भर गश्त लगाते मेहनतकशों के
दिलों को काटती
सर्दी के ज़र्द टुकड़ों में।
बारिश जो हमें हमारी हदों में रखती,
छतों पर लगातार बजते ढोल
हमें ललकारते, अहसास दिलाते
कि हम आख़िर कौन हैं।
इसी बारिश में
मेरे पिता भींगते थे
और दादा भी, मेहनत के पसीने में
इन्हीं बीहड़ सड़कों पर
जो इन दिनों बदल गई है शहर में।
यह बारिश, जो अब फ़सल बनकर नहीं उगती
उड़ती रहती है लगातार;
ज़मीन में दबी हमारी पुरखों की शक्लें
अब दिखलाई नहीं पड़ती
हम अक्सर भूल जाते हैं
बारिश बिलकुल आज़ाद बरसती है
चली जाती है किसी भटकते दूर आसमान की तरफ़
हमें यहीं अकेला छोड़कर।
इस बारिश में बहते हुए हम घुलमिलकर बन जाएंगे
पत्थर की तरतीबें
बारिश आती रहेगी लगातार
साल दर साल, और बचा रहेगा
बारिशों का यह शहर।
इंजीनियर के लिए कविता
ये कविता दुनिया बदलने का इरादा नहीं रखती
न उसे रत्ती भर हिलाना चाहती है;
यह काम विज्ञान का है – विमान शास्त्र, सिविल इंजीनियरी
इन्हें ज़रुरत है हुनर की, पैसे, इन्तेज़ामातों की
ये बेहिसाब रातें जाग, मेज़ पर गिरे ढांचों की मरम्मत करते
अपने छोटे से कमरे में। कोण जांचते, ऊंचाई नापते, गिनती में मशग़ूल
ताकते शाफ़्ट, रोटर और नक़्शों की तरफ़।
पत्नी नींद में ग़ुम है, कुत्ता जी बहला रहा है
चाँद के दरमियान आसमान को करवट बदलता देख।
यह मुश्क़िल काम हैं। नज़्मों को क्या मालूम
ऊर्जा, बल और तनाव के हस्तक्षेप? संतुलन का कैलकुलस?
उसके बचपन के सॉनेट लहरों में बिखरे हुए थे
जब तुम स्लेट पर खींची लक़ीरों और लफ़्ज़ों को देखते थे
मैदान और जंगलों की तरह; जब तुम
कम्पास और स्केल के साथ जद्दोजहद करते थे
वो पलक झपकते बदल देता था नज़्मों के मीटर को इंचों में
दरिया जंगलों को लांघ, बादलों में तैरते महल,
आसमान को चीरती इमारतें बनाते हुए।
उसके कंधे ज़िन्दगी के मज़बूत चट्टान हैं
सोने का विचार गर्दन के उस हिस्से में हल्का सा दर्द है
जहाँ हाथ नहीं पहुँच पाता।
उसका काम अब लगभग पूरा हो चुका है।
वह आंकड़ों को आख़िरी बार दुहराता है,
जब कविता उसे देख रही होती, पोशीदा, ग़ायब।
काम ख़त्म करते हुए, वह हक़ीक़त के अँधेरे को
तोहफ़े में देता है एक जादुई योजना, कागज़ पर खींची लकीर
जो एक दिन मनसूबों को हक़ीक़त से जोड़ती एक पुल बन जायेगी,
या एक ऊंची ईमारत, हवा से हलकी एक हैरत।
मेरी मेहबूबा का घर
ये मेरी मेहबूबा का घर है।
उसकी शटर आँखें, ये बंद दरवाज़े उसके होंठ हैं।
ये रसोई जहाँ मैं बैठा हूँ
मेज़ की तरह शांत, नाश्ते सा ठंडा
दावत सा उतावला।
ये उसके अंग हैं, उसकी देह की ज़मीन में
गहरी दबी जड़ें, जिनके पार नहीं जा पा रहा हूँ मैं।
चाहे जितनी शिद्दत करूँ, उसके बग़ीचे जितना घना नहीं हो सकता
यही कैफ़ियत है मेरी, मेरी जानने समझने की हदें,
मेरी भरोसे की सरहदें।
बाहरी दुनिया का फ़ैलाव, रुकता है
मेरी खाल तक आकर। जिसके पार जाने के रास्ते कई हैं;
उसकी साँसों की नाज़ुक गरारी,
छुअन की हलकी सबर सीढ़ियां।
यही है, बस यही मेरी चाहतों का दायरा।
सोचता हूँ शायद उसकी चोटियाँ भी बनना चाहतीं हैं मेहराब,
पसर जाना चाहती हैं ज़मीन पर
किसी मुलायम ग़लीचे की तरह, मैं चाहता हूँ
घर लौटकर उसे देखना, परदे खोलना
चाहता हूँ, खिड़कियों से रात घर के अंदर आये।
बस यही रास्ता है मेरी मेहबूबा तक पहुँचने का,
रग़ों से बहते हुए उसके दिल में उतर जाने का। इसी बाबत
आज रात मैं उसमें उतर रहा हूँ,
नींद की गहरी वादियों में बहता हुआ
पहुँच रहा हूँ उसकी दहलीज़ तक,
उसके कमरे की खिड़की पर रखे
रोशनदान को देखता हुआ।
मुझे मालूम है ये वही घर है,
और दरवाज़े मल्लाह हैं हमारे बीते हुए दिनों के
अगल बगल रखे हुए, जहाँ हलकी सी भनक
उसे खोल देती है, और छलक जाती है गर्म रौशनी,
आहिस्ता से।
जब बर्बर आएंगे
लाशों को बाहर निकाल दो, मग़र उन पर प्रलाप मत करो।
जज़्बाती होना अच्छी बात है। ज़रुरत पड़ने पर यादों को भी जगह मिलेगी।
लाशों को जलाओ। ज़मीन की जगह बचाये रखो, रहस्यों पर अफ़सोस मत करो। फ़ोटो खींचने वालों के लिए राख तैयार रखो।
घर की तमाम मिलकियत दफ़ना दो। स्मारकों को गिरा दो। पहले वो मूर्तियां तबाह की जाएंगी जिनके हाथ फ़तह में उठे हैं, फिर वे सभी जिनमें शेर हैं।
अपने घरों में महफूज़ रहो, अपनी ज़मीन पहचान लो और सवालों में बात मत करो।
जाहिल होने का बहाना करो।
नौकरों को गिनती सिखाओ। हिसाब करते वक़्त उनके फायदे की ग़लतियां करो।
रसीदों को नज़र से दूर रखो। मुनासिब वक़्त देख कर उनके क़ानून को अपना कहो और मोहल्ले में अपनी साख बिगाड़ लो।
उनके इतिहासकारों को ग़लत जानकारियां दो। उन्हें अपने पकवान बनाने के ग़लत नुस्ख़े सिखाओ।
जड़ों की जीभ, और दरख़्तों की वज़ह का तकाज़ा करो। जब चीकू फले, उन्हें कहो ये लिंडन है। लिंडन को गिन्को बतलाओ।
लैक्सेटिव को मर्दानगी की दवा बतलाओ। दर्द को मज़बूत जज़्बातों से जोड़ दो।
रसूलों की लहर आएगी। किसी को मत बताओ अंजाम कब और कैसा होगा। सलाह मशवरा मत करो। मुश्किल वक़्त में भी तरक्क़ी करते रहो।
किसी भी हालत में लोक-कथाओं की बात मत करो।
जबतक उनकी आँखों की सफ़ेदी दिखलाई न पड़े, अँधेरे में सौदे मत करो। जब वो भगवान की बात करें, सर झुका कर अपना मज़हब, अपनी शर्म, हंसी, नाराज़गी छिपाओ।
अपने बच्चों को उनके मरे हुए पुरखों जैसे कपड़े पहनाओ। अपनी बेटियों की शादी उनके घरों में करवाओ।
जल्द ही, तुम्हारे और उनके जनाज़े एक से निकलेंगे।
तरक़्क़ी
मुझे और ज़्यादा कमरे चाहिए, क़ालीन बिछाने की जगह, चमकते फ़र्श, झुकी हुई घुमावदार छतें, चमकते बड़े बाथरूमों में गर्म पाने के जकूज़ी फ़व्वारे।
रसोई इतनी बड़ी कि जज़ीरा समा जाए, जर्मन स्टील के ख़ूबसूरत बर्तन, आलिशान इंडक्शन हॉब्स, जिनका मैं कभी इस्तेमाल न कर पाऊं।
दीवार से दीवार तक सौगान लकड़ी की टाइल्स, रूमानी झालर, इतने सारे परदे जिन्हें खोलने में तमाम ज़िन्दगी बीत जाए, इतने बड़े कमरे कि किसी दीवार को गिराकर जगह बड़ी न बनानी पड़े। इतने बड़े कमरे कि दीवारें दिखलाई ही न पड़ें।
मैं अपने सोने के कमरे में जैगुआर की कार खड़ी करना चाहता हूँ।
दो जैगुआर। कमरे इतने बड़े हों कि पड़ोसी देखने आएं, सैलानी घूमने आएं, सब के ज़ेहन में मेरे लिए इज़्ज़त और जलन दोनों हो। मेरा घर एक राष्ट्रीय धरोहर कहलाये।
जागीर इतनी बड़ी, कि आये दिन मेरे ऊंचे चौखट पर इंजीनियरों की जमात लगे। नए-नए मंसूबों के साथ, कि कैसे मेरे घर का इस्तेमाल कारोबार और मुनाफ़े के लिए किया जा सकता है। और मैं हँसते हुए उन्हें मना करूँ।
मैं इतना दरियादिल होना चाहता हूँ कि तमाम दोस्त अपने कुत्तों को मेरे नौकरों के हवाले छोड़ कर टहलने जा सकें।
मैं एक बड़ा हेलिपैड चाहता हूँ, जहाँ जॉगिंग करते हुए मैं इर्द-गिर्द के दृश्यों से बोर न हो सकूँ। इतना बड़ा, कि पड़ोसियों को देखने के लिए दूरबीन की ज़रुरत पड़े। और इतना ऊंचा, की नंगी आँखों से मैं देख सकूँ समन्दरों के पार।
ज़ाहिर है, एक बड़ा स्विमिंग पूल। ओलिंपिक साइज। नहीं, झील जितना बड़ा। इतना बड़ा कि चाँद से दिखलाई पड़े, जहाँ मेरे पिता वक़्त बेवक़्त मछली पकड़ने जा सकें। समंदर का एक प्राइवेट किनारा, जैसा जापान में है, नक़ली लहरों वाला, साल भर ढ़ाई फ़ुट की हलकी लहरें।
जागीर इतनी बड़ी, कि मेरी अपनी एक सरकार हो। इस सबब, अपना संसद, अपनी आवाम, सेना, अपना अलग़ टाइम ज़ोन, जहाँ घड़ियों में हमेशा रविवार शाम के छह बज रहे हों, आसमान में हमेशा सूरज ढल रहा हो।
ज़िन्दगी ख़त्म हो जाती है, हम में कोई ज़िंदा नहीं रहेगा, फूल कहता है, चींटी कहती है, जिनके घर हमसे बड़े हैं।
बहरहाल, मुझे ऐसी जागीर चाहिए, जिसका अपना मौसम हो, हवा का तापमान तेईस डिग्री सेल्सियस, बादलों से बजाय बारिश के जैज़ बरसता हो।
और मेरे बरामदे में कुछ पहाड़, जिनपर देवदार के दरख़्त बोन्साई की तरह सजे हों। मेरा अपना चाँद, जिसे मैं बल्ब की तरह जब चाहे जला-बुझा सकूँ। सूरज को जब चाहे मद्धिम कर दूँ। और मेरे क्रिसमस के जंगल को सजाने के लिए रात के तसव्वुर से लाये हुए कुछ सितारे।
रात जितने बड़े कमरे। बेहतरीन ख़ामोशी। इतनी ज़्यादा जगह जहाँ मैं सो सकूँ सुक़ून से, और देख सकूँ बेइन्तहां जज़ीरों को, सपनों की तरह।
परिचित
“जब कोई इंसान, जिसे मैं नहीं पहचानता, मुझसे आकर कहता है कि वो मुझसे कई साल पहले मिला था, मुझे घबराहट होती है। कब? कहाँ?” – बर्नाडीने एवरिस्टो
मैं तुम्हें पिछले जन्म से जानता हूँ, शायद और भी पहले से। काठमांडू, सोलहसौ चौंतीस की बहार याद है? हम नौसौ तीन ईसापूर्व में यांग्तज़े में साथ तेरे थे (नदी का नाम तब कुछ और था।) हम उस पहाड़ पर चढ़े थे जो आज तिब्बत है। हमने एड्रियाटिक सागर को डायनासोर बनकर डराया था। मैं अमीर था और तुम बेहद गरीब। मैमथ के सौदे में हमारी होड़ लगी थी। मैं तुम्हारे बनाये कम्बल बेचता था। तुम्हारे टेक्नो वायरस ने मुझे लंगड़ा कर दिया था। जब रोमन आये थे, तुम गा रही थी। (तब मुझे लगा था कि तुम्हारा गाना मैं पहले कभी सुन चुका हूँ।)
बाकी चीज़ें
“बग़ीचा उगाने का मतलब भविष्य पर यक़ीन करना है।”
– अमाना कॉलोनी, आयोवा
गमले में उगा पौधा खरीदने का मतलब ज़रुरत और बेवफ़ाई दोनों है। पौधे को पानी देना, कभी रोज़, और कभी सिर्फ़ तब जब तुम्हें याद आये कि पौधे के पत्ते मुरझाने लगे हैं, प्यार से मिलता जुलता एहसास है।
बाकी चीज़ों का मतलब बाकी चीज़ें हैं।
चिराग़ जलाने का मतलब अँधेरे को उसी अलमारी में छिपाना है, जहाँ नींद, वासना, सन्नाटे, और कल के जूनून क़ैद हैं। किताब से दोस्ती का मतलब दो अलग-अलग एकांत से बंध जाना है, जैसे गुफ़्तगू एक साथ उठती और गिरती चली जाती है, लफ़्ज़ों से गुज़रते हुए हम सन्नाटे तक पहुँचते हैं, बादल तैयारी करता है अपनी ग़ैरहाज़िरी की, जैसे बहार के स्वागत में बर्फ़ लिबास उतारता है।
तुम्हारी बिस्तर वहीं है, जहाँ तुम उसे छोड़ कर चली गयी थी। हाँ, मग़र सिलवटों से तुम्हारी तासीर, तुम्हारा वजूद मिट चुका है। उनकी सोच, उनके ख़याल तुमसे अलग है, ठीक तुम्हारे बच्चों की तरह, जिन्हें तुम अपना वक़्त नहीं दे सकी।
रसोई में पड़ी कढ़ाई बेहद संजीदे सवाल पूछती है: क्या जलेगा, कितनी देर तक, और क्यों?
टीवी शैतान की देन है, जिसे भगवान ने भेजा है। अपनी मर्ज़ी से आता है, चला जाता है। किसी की टीवी का रिमोट छिपा देना गुनाह है, मग़र किसी और का छाता लेकर चले जाना बेहद मामूली ग़लती।
फ़ोन कुछ ज़्यादा ही सफ़ेद है। तुम्हारा बंद किया हुआ दरवाज़ा आज तक बंद है। तुम भले ही न मानों, मग़र सवेरे की उम्मीद की सबसे बड़ी वजह रात है।
याद रहे, कार की चाबी डांस के बाद भी वहीं मिलेगी। दीवारें दूरी और सन्नाटे बराबर समेटती है। केतली को रोने की वजह बनाना काफ़ी नहीं।
आईने के पूछे गए सभी सवालों के जवाब, हाँ है।

(लेख सदानीरा 10 से साभार।)
बेंगलुरु निवासी सौरभ राय कवि, अनुवादक, व पत्रकार हैं। इन दिनों वे बेंगलुरु रिव्यु का संपादन कर रहे हैं।
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