“मसान कहती है कि जीवन में कुछ भी हो, चाहे कितना भी बड़ा या बुरा, वो जीवन से बड़ा नहीं हो सकता,” नीरज पांडेय लिखते हैं।
बचपन में एक बार बनारस गया था। दसवीं बोर्ड के बाद सीएचएस की परीक्षा के सिलसिले में बीएचयू का चक्कर लगा था। बनारस उस वक़्त मेरे लिए एक बड़ा शहर था। मेरे दिमाग में ये भी था कि यहाँ के रहने वाले लोग, लड़के, लड़कियाँ मुझसे काफी फॉरवर्ड होंगे। मुझे यह भी लगता था, यहाँ लड़के गाली नहीं देते होंगे। क्योंकि गाली देना गन्दी बात है और बड़े शहर के लड़के गंदी बातें नहीं करते। इस बात को करीब बारह – तेरह साल हो गए। इस वक़्त के दौरान मेरे अंदर और बाहर बहुत कुछ बदल गया था। बनारस एक क़स्बा हो चुका था। कुछ दोस्तों ने बुलाया भी कि “आओ घूम जाओ बनारस” पर हो नहीं पाया।
पर दुबारा बनारस देखा, फिल्म ‘मसान’ में।
बिना बनारस गए ही मैं इन जगहों और किरदारों से वाकिफ था। फिल्म देखते हुए कई बार मुझे लगा कि मैं ‘देवी’ को जानता हूँ, ये वही लड़की है जो फलाना गली में रहती थी और जब ट्यूशन पढ़ने जाया करती तो लड़के उसे उसके नाम से कम और ‘रंडी’ कह कर ज़्यादा सम्बोधित करते थे। क्योंकि वह लड़की किसी लड़के से प्यार करती थी और ये खबर सबको पता थी कि वो उस लड़के से कभी कभार मिला भी करती है। बाकी आगे पीछे की क्या कहानी थी मुझे नहीं पता, और यकीन है कि उन्हें भी पता नहीं होगी जो ऐसा कहा करते थे।
पर उस वक़्त अपना कोई नजरिया नहीं था जो लोगों ने कह दिया उसपर भरोसा करना होता था। वजह ये भी थी कि बाहर की दुनिया का पता था ही नहीं और ये भी कि जब आस पास के इतने सारे लोग यह कह रहे हैं तो सच ही होगा। फिल्म देखते हुए मुझे उन सारी देवियों के लिए बुरा लगा जिनको मैंने भभुआ की सड़कों पर देखा था।
फिल्म के एक सीन में जहाँ ‘देवी’ का एक सहकर्मी उससे ये बोलता है कि “देगी क्या? उसको भी तो दिया था।” मैं इस किरदार को भी जानता था, जैसे ही उसने मुँह खोला मुझे पता था ये क्या बोलेगा। वो सीन जैसे जैसे खुला मैं घीन से भरता गया। देवी को किये जाने वाले गंदे कॉल्स और लोगों को ‘देवी’ को देखने का नजरिया ‘देवी’ के बारे में नहीं हमारे और हमारे सभ्य समाज के बारे में बहुत कुछ बतलाता है।
और जो मुझे दिखा, वो ये था कि सभ्य समाज और कुछ भी नहीं ‘गिफ्टरैप्ड टट्टी’ है। ऊपर ऊपर से तो बहुत अच्छी लगती है देखने में, पर थोड़ी परत हटाते ही बास आनी शुरू हो जाती है।
देवी के पापा विद्याधर पाठक जी से भी अपना पुराना परिचय था। जिनका गिल्ट समाज और जिम्मेदारियों का थोपा हुआ था। वो भी उस समाज से ऐसे ही डरते नज़र आये जैसे अँधेरे में रस्सी देखकर साँप होने का डर।
दूसरी तरफ दीपक और शालू का प्यार, उनका पहला चुम्बन। काफी कुछ मेरे पहले प्यार से मिलता जुलता था। वो प्यार जिसकी शुरुआत ही शादी के ख्याल से होती थी। और उस प्यार को पाने के लिए साथ देते थे कुछ जिगरी दोस्त। दीपक और शालू एक दुसरे को जब स्क्रीन पर पहली बार एक दुसरे को चूमते हैं, मैंने भी फिर से एक बार, पहली बार किसी को चूम लिया।
हमारा प्यार जो अगर किसी पेड़ के नीचे समाज से छुप कर किया जाये तो कितना मधुर और अगर वही हमारे समाज के दायरों में आ जाये तो ‘देवी’ के प्यार की तरह बाजारू करार दे दिया जाता है। दीपक का कुछ होना और कुछ और हो जाने की चाहत रखना… हम सबके अंदर एक दीपक है।
वैसे तो वो आधी नींद से उठकर भी बिना किसी तकलीफ के मुर्दे जला सकता है। पर जब उसे ये दिखता है कि उसके सामने शालू की लाश पड़ी हुई है उसे ठीक ठीक समझ नहीं आता की ये अचानक क्या हुआ। उस वक़्त मुझे भी लगा था की दीपक की क्या प्रतिक्रिया होगी? उधर दीपक दर्द में था पर चुपचाप बैठा था और इधर अपने अंदर एक बवंडर सा चल रहा था। दीपक के सामने सिर्फ शालू नहीं बल्कि उसके साथ देखे हुए सारे सपने जलकर ख़ाक हो गए थे। मेरे अन्दर का बवंडर भी तब टूटा जब दोस्तों के साथ बैठा हुआ दीपक फूट फूट कर रोया। थोड़ी देर के लिए चश्मा हटा कर मैंने अपनी आँखे पोंछी।
पर मसान कोई उपदेश नहीं है, मसान एक गीत है। मसान हमें यह नहीं बताती कि क्या सही है और क्या गलत है। एक अच्छी कविता की तरह हमें दिखाती है, जो भी हमारे आस पास चल रहा है। कबीर के एक दोहे की तंज पर इस फिल्म से भी जिसको जो लेना है वो वही ले पाएगा। यहाँ तक की फिल्म मृत्यु जैसे विषयों को भी बहुत ही सहजता से दर्शाती है।
जैसे मृत्यु तो इस जीवन का अंग ही हैं, एक जगह से निकल कर दूसरी जगह पर जाना। एक नयेपन की तलाश और उस तलाश में खुद को ढूंढ लेने की उम्मीद। देवी और दीपक का बनारस छोड़ कर इलाहाबाद जाना भी उसी जीवन प्रवाह का अंग है और एक बदलाव का संकेत देता हैं। एक नई जगह जहाँ शायद पिछले जीवन की बेड़ियाँ पांवों में न उलझें।
मसान शायद यह भी कहती है कि जीवन में कुछ भी हो चाहे कितना भी बड़ा या बुरा जीवन से बड़ा नहीं हो सकता।
मैं खुद भी उसी दीपक की तरह एक छोटे शहर से चलता हुआ, एक शहर से दुसरे शहर घूमता हुआ खुद की तलाश कर रहा हूँ। इस सफर में भी बहुत कुछ ऐसा देखा है जो हमें बताई हुई जीवन की सच्चाइयों से कहीं अलग है। में तो आगे देख कर चलने के लिए कहा गया था पर कभी कभी ज़िंदगी अचानक से धप्पा भी दे देती है। बस इस खेल को खेलना सीख रहा हूँ, ताकी धप्पों में भी मज़े लिए जा सकें। और अभी तक जो सीखा वो यही कि “मन कस्तूरी रे, जग दस्तूरी रे…

इंडियारी-2 से साभार।
मुंबई निवासी नीरज पांडेय स्वतंत्र लेखन करते हैं।
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