उत्तर प्रदेश और बिहार के सिमाने पर एक कस्बा। कस्बे का रंगमंच। मंच से लापता होते लोग। उन्हीं की कथा है वैधानिक गल्प। लेकिन कथा सिर्फ इतनी नहीं है। कथा किताब में छपे शब्दों से इतर भी बहुत कुछ है जिसके ज़द में आते हैं हम, आप, हमारी मानसिकता और आपका समाज, सामाजिक राजनीति, राजनीतिक समाज, प्रेम की उपस्थिति से अपने समाज को असुरक्षित मानने वाले और प्रेम में जिन्दा होकर मरने वाले लोग।
व्यक्ति को विराट बनाने वाला प्रेम ना जाने क्यों समाज को लगता है कि ये उसके अस्तित्व को बौना करने की साजिश है। 'चुनाव' क्या सिर्फ हमारे समाज में 'मतदान' के लिए ही अर्थ लिए बैठेगी? जीवन के मूल और गूढ़ अर्थों में इसका क्या अर्थ होना चाहिए? जीवन में जीवनसाथी के 'चुनाव' के लिए इस शब्द का अर्थ स्वंय को क्यों हमारे समाज में न्यून समझने लगता है। होना तो नहीं चाहिए था ऐसा, लेकिन अगर ऐसा है तो हमें नए समाज कि खोज के ओर अग्रसर होना चाहिए।
जीवन रोज बदलने वाली एक सतत प्रक्रिया है। आप आज तो निर्धारित करेंगे वह कल बेमानी हो जाएगा तो बात असल में ये नहीं है की समाधान चाहिए इन सारी चीजों का, बात ये है कि समाधान करने वाला मन चाहिए। क्या हम इन बदलावों को होने देना चाहते हैं या होने देंगे? क्या स्वतंत्र भारत के लोकतांत्रिक परिवेश में लोगों को आज़ाद होकर अपने लिए 'चुनाव' करने कि सुविधा मिलेगी या मानवीय संवेदना यूँ ही एक उग्र भीड़ (जिसको कि किसी खास काम के लिए ट्रेंड किया जाता रहा है व्यक्तियों के हितों के रक्षार्थ) के पैरों तले कुचली जाती रहेगी? इन्हीं कुछ मूलभूत मानवीय प्रश्नों को उधेड़ कर आपके सामने रख देती है चंदन पाण्डेय की किताब 'वैधानिक गल्प'। हालाँकि ये उपन्यास त्रयी है और ये पहला भाग है।

इस उपन्यास का बेहद खूबसूरत पक्ष मुझे लगता है वो ये कि ज्यादातर कथा, उपन्यास आदि में लेखक स्वंय को (रचनाओं में जो पात्र खुद में लिए सहेजता है लेखक) इन्क़िलाब के झंडे में लपेटकर प्रस्तुत करता रहा है लेकिन चंदन जब व्यक्तिवाचक होते हैं तो बिल्कुल सामान्य फील करवाते हैं। अनावश्यक रूप से जो एक इन्कलाबी इमेज बनाया जाता रहा है 'मैं' के लिए उस से बिल्कुल परे दिखते हैं इस उपन्यास के भीतर में लेखक की उपस्थिति। इस उपन्यास का 'मैं' भी हमारे-आपके तरह सामान्य स्थिति वाला आदमी है। उसकी अपनी समस्याएं है व्यक्तिगत जीवन की और बड़ी बात ये है कि वो भाग नहीं रहा है इन सब से। इन्हीं सबके बीच रहकर वो वो सब कुछ करता है या करना चाहता है जो कि उसको करने की सीमा के भीतर आती हैं। पत्नी से आज के युवाओं की तल्खियाँ और सौहार्दपूर्ण प्रेम अद्भुत रूप से आया है। एक बात ये खटकी कि लेखक के इतने विराट 'इमेज' गढ़ने में सक्षम चन्दन क्यों लेखक की उपकृत नौकरी वाली इमेज बनाते हैं पत्नी और साले के समक्ष।
मैं इसे संबंधों में हिम्मत का उपन्यास भी कहना चाहता हूँ और सम्बन्धों में समझदारी का भी। उपन्यास के भीतर का लेखक की पत्नी ये जानती है कि जिसने बुलाया है वो उसकी पूर्व-प्रेमिका है लेकिन फिर भी उसके जाने का टिकट स्वंय काटती है। ये एक स्त्री के विशाल हृदय और उसके भीतर में छिपे मानवता के रक्षा करने क अद्भुत दबी इच्छाओं को उजागर करती है। दबी इसलिए क्योंकि हमने पत्नियों का जो 'इमेज' गढ़ा है उसमें दब गया है ये कोमल मनोभाव। हमने जानबूझकर ना जाने क्यों पत्नियों का ईर्ष्यालु और झगड़ाउ इमेज बनाया है। चंदन यहाँ बहुत आसानी से इन सब बातों की रूढ़ियों को तोड़ते नज़र आते हैं।
सोचने का काम हम लोगों ने शास्त्र, वाद, विचारक और सिद्धान्त के भरोसे छोड़कर अपने लिए रेडीमेड जबाब या हल चाहने वाले मानसिकता के आदि हुए जा रहे हैं। उधार के विचार और भीड़ वाली मानसिकता से गहरे पैठकर लड़ने के अनुकूल पर्यावरण बनाती है ये उपन्यास। मेरा मानना है कि साहित्य कोई गोला, बारूद या टैंक नहीं है जिसकी मदद से हम रातोंरात किसी बुराई को नष्ट कर दें। असल में ऐसा किया भी नहीं जा सकता है बल्कि यूँ कहें कि करना भी नहीं चाहिए। चन्दन यहाँ बिल्कुल ऐसी मानसिकता में नहीं दिखते। कोई हड़बड़ाहट नहीं है व्यवहार में। आकुलता है, व्यग्रता है, चिन्ता है चीजों को बदलने की या ठीक करने की। बड़ी बात ये है कि चंदन कहीं भी 'जजमेंटल' नहीं होते हैं। यहाँ तक कि नागरिकता के सम्बन्ध में अपने विशेष टिप्पणी के बाबजूद भी सिस्टम के साथ ही काम करते हैं बदलाव की जमीन पर। जितने विश्वास और संवेदना से शलभ से मिलते हैं उतने ही से दद्दा, मुकेश, आदि से मिलते हैं। भावनाओं में ना बहकर तथ्यों के आधार पर बढ़ते हैं। जबकि प्रेमिका (इसलिए क्योंकि प्रेमिकाएँ कभी पूर्व की नहीं हुआ करती हैं) की उपस्थिति के कारण सम्भव था कि भावनाओं के आधार पर 'स्पाइडर-मैन' बन जाते। लेकिन नहीं किया। क्यों नहीं किया? क्योंकि चंदन के पास यथार्थ, अनुभव, अध्ययन और गहरी राजनीतिक समझ है। 'पॉलिटिकली करेक्ट' होने के चक्कर में ना पड़ कर 'पॉलिटिकली समझ' के साथ प्रस्तुत होते हैं।
राजनीतिक, सामाजिक पक्षधरता या इन सब जैसे विषय पर लिखे को पढ़ते हुए 'बोर' हो जाने की अत्यधिक संभावना होती है जिससे चंदन बचा ले जाते हैं। हर एक पन्ने पे उत्सुकता प्रतीक्षारत खड़ी मिलती है। मतलब कि पठनीयता के खतरे से उबार लेती है पाठक को। समकालीन मुद्दे पे सतर्कतापूर्वक लिखते हैं। बतौर कुणाल सिंह "कहन की साहिबी उन्हें ईर्ष्या का पात्र बनाती है।"
सामान्यतः नाटक को कथा के आधार पर देखा-समझा जाता रहा है। मसलन 'आषाढ़ का एक दिन' पढ़कर हम उसके 'रंगमंचीय डिजाइन' से ज्यादा उसके कहानी को पसंद करते हैं। ये एक प्रचलित रिवाज़ रहा है। लेकिन उक्त उपन्यास में नाटक की समझ छलकती है। रिहर्सल, पात्र-निर्धारण पर निर्देशकीय नोट्स, डायलॉग और उस से संबंधित पात्रों की मानसिकता की पड़ताल, आदि-आदि इसके प्रमाण उभरते हैं। संवाद-पटुता, गझिन बुनावट, आंचलिक शब्द-प्रयोग, प्रांजल भाषा में उत्सुकता बरकरार रखते हुए अगर आप गहरे पानी पैठने के इच्छुक हों तो 'वैधानिक-गल्प' आपके स्वागत में लोकतांत्रिक अधिकारों और मूल्यों के माला के साथ खड़ी है।
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गुंजन श्री चर्चित कवि और कथाकार हैं।